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________________ हे धर्म ! तू ही जग का सहारा ३०६ अंजना श्वसुर गृह से निकाली जाकर अपनी सखी सहित पीहर गई। पीहर में उसके माता-पिता तथा सगे सौ भाई थे। किन्तु आप जानते हैं कि वहाँ उसका क्या हाल हआ ? यही कि, सौ भाइयों में से एक ने भी उसे आश्रय नहीं दिया तथा जन्म देने वाले पिता और माता ने भी उसे महल की ड्योंढ़ियाँ नहीं लाँघने दीं, जल का एक घट भी पीने को नहीं दिया। इतना ही नहीं, अपने शहर में मुनादी करवा दी कि कोई भी नगर-निवासी अगर अंजना को आश्रय देगा तो उसका सर्वस्व छीन लिया जायेगा तथा कड़ी सजा और मिलेगी। अतः स्वयं राजा के भय से सम्पूर्ण नगर में कोई भी व्यक्ति अंजना को आश्रय नहीं दे सका और उस भूखी-प्यासी राजकुमारी को एक वक्त का खाना तो दूर जल-पान भी नहीं मिला । फलस्वरूप वह सीधी जंगल में गई और वहीं पर कुछ काल पश्चात् हनुमान का जन्म हुआ । कहने का अभिप्राय यही है कि सौ भाइयों की एक बहन जिस पर मातापिता कभी जान देते थे, उसके संकट के समय काम नहीं आये । जिसको सासससुर ने त्याग दिया था, उस दुःख में डूबी कन्या को जन्म-दायिनी माता ने भी हृदय से नहीं लगाया और खड़े-खड़े निकलवा दिया । इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि संसार के सब नाते झूठे हैं । कोई भी सम्बन्धी सच्चा साथी या सहायक नहीं है । सब रिश्तेदार या तो इस जीवन में ही साथ छोड़ देते हैं और नहीं तो इस देह के नष्ट होते ही स्वयं छूट जाते हैं । सदा साथ केवल धर्म देता है, इसीलिए कवि ने कहा है-“हे धर्म ! तू ही मेरी माता, पिता, मित्र और देवता है । इस लोक में भी तू मेरा सगा साथी और सर्वस्व है तथा परलोक में भी साथ देने वाला सहायक और हितैषी है।" आगे कहा गया हैतीर्थश चक्री अवलम्ब लेके, संसार से हैं तरते सदा ही। आराधना को मुनिराज तेरी, आगार को त्याग अरण्य जाते ॥ तेरे लिए प्राण तजे जिन्होंने, टूटा उन्हीं का यमराज-पाश । रक्षा सदा जो करता तिहारी, तू भी बचाता उनको दुखों से ॥ आराधते निर्मल चित्त में जो, पाते वही जीवन-लाभ पूरा। जो मूढ़ धी हैं करते विनाश होता उन्हीं का जग में विनाश ॥ कवि का कथन है- "हे धर्म ! तेरा अवलम्बन लेकर ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती और बड़े-बड़े वैभवशाली इस संसार-सागर से पार उतरते हैं और अपना ऐश्वर्य एवं आगार त्यागकर महामुनि केवल तेरी आराधना करने के लिए ही घोर वन में जाकर तपस्या एवं साधना करते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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