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आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
सच्चा धर्म
पूज्य श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने अपने पद्य में सच्चे गुरु एवं सच्चे धर्म की पहचान करते हुए आत्म-कल्याण के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा दी है । उसी के अनुसार हमने संक्षिप्त में सच्चे देव एवं गुरु के लक्षण ज्ञात किये हैं और अब धर्म के विषय में ज्ञान करना है । वैसे भी हमारा आज का विषय 'धर्मभावना' है जिसे भाना प्रत्येक आत्मार्थी के लिए आवश्यक है। धर्म-भावना के अभाव में कोई भी व्यक्ति कल्याण के पथ पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकता।
विद्वतवर्य पं० शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' ने 'धर्म-भावना' पर एक कविता लिखी है उसमें धर्म का महत्त्व बताते हुए लिखा है
संसार सारा जिसके बिना है, अत्यन्त निस्सार मसान जैसा। साकार है शांति वसुन्धरा की, हे धर्म तू ही जग का सहारा ॥ जो जीव संसार समुद्र मध्य, हैं डूबते पार उन्हें लगाता। त्राता नहीं और समर्थ कोई, आनन्द का धाम सदा तुही है। माता-पिता, बन्धु, सखा अनोखा, तू है हमारा वर देवता भी। साथी सगा है परलोक का तू, सर्वस्व मेरा इस लोक का है ।।
कवि ने धर्म की स्तुति करते हुए धर्म को ही सम्बोधित कर कहा है"हे धर्म ! तू ही जगत के सम्पूर्ण प्राणियों का सहारा है तथा इस पृथ्वी पर शान्ति का साकार रूप है । अगर तू इस संसार में न रहे तो यह श्मशानवत् शून्य और निस्सार हो जाय ।"
क्योंकि, इस जगत के प्रत्येक प्राणी को भव-सागर में डूबने से तू ही बचा सकता है, अन्य किसी में भी यह क्षमता नहीं है। दूसरे शब्दों में, तुझे अपनाये बिना कोई जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त नहीं कर सकता, तू ही आनन्द का एक धाम है जहाँ पहुँचकर जीवात्मा पूर्ण शान्ति, सन्तोष एवं सुख का अनुभव करता हैं।"
इस लोक में हमारे अनेक सम्बन्धी हैं और वे सदा सगे होने का दावा करते हैं, किन्तु दुर्दिन में कोई आड़े नहीं आता और तो और जन्म देने वाली माता भी मुँह फेर लेती है ।
महासती अंजना को गर्भवती होने पर ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया तथा सगे सास-ससुर ने इतना भी सब्र नहीं रखा कि पुत्र पवनंजय को युद्ध से लौटने दें तथा उससे मालूम करें कि वह अपनी पत्नी से मिला था या नहीं।
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