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________________ हे धर्म ! तू ही जग का सहारा ३०७ को तो अब जाना ही है अत: रुष्ट होकर भी वे क्या कर लेंगे, मैं तो सौ रुपये ही दूंगा।" ऐसी स्थिति में क्या होगा ? किसी ने ऐसे प्रश्न के उत्तर में ही कहा है लोभी गुरु लालची चेला, दोनों खेलें दाव । दोनों डूबे बापड़ा, बैठ पत्थर की नाव ।। वस्तुतः लोभ, लालच एवं आशा-तृष्णा पत्थर की नाव के समान ही हैं, जिनका आधार लेकर कोई भी प्राणी भव-समुद्र को पार नहीं कर सकता। सन्त तुकाराम जी ने भी कहा है "आशाबद्ध वक्ता, धाक-श्रोतियांच्या चिला। वाया गेले ते भजन, उभयता लोभी मन । बहिरे मुके ठायी, माप तैसी गोणी, तुका म्हणे रिते दोन्ही ।" कहते हैं-वक्ता तो आशा से बँधे हुए हैं, अर्थात् बोलने वाले दान-दक्षिणा की इच्छा पाल रहे हैं । उधर श्रोता यानी सुनने वाले दक्षिणा देनी पड़ेगी, इस धाक या डर से कभी गये और कभी कथा सुनने गये ही नहीं। फल यह हुआ कि महात्माजी का भजन वाया गेले यानी निरर्थक ही चला गया । ____ आगे लोभी गुरु और लालची चेले पर दो संक्षिप्त दृष्टांत बड़े मनोरंजक दिये गये हैं। कहा है-'एक बहिरा और एक गूंगा एक साथ वर्षों बैठे रहकर भी अपने विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते तथा उनका समय या साथ व्यर्थ जाता है । इसी प्रकार माप खाली है पर मूर्ख व्यक्ति बार-बार उसे थैले में औंधा करते हुए एक, दो, तीन और आगे भी इसी प्रकार लम्बी गिनती करता चला जा रहा है। तो वन्धुओ, जिस प्रकार गूंगा और बहरा साथ रहकर भी कोई लाभ नहीं उठा पाते तथा खाली माप औंधाने से कभी गोणी यानी थैली नहीं भर सकती; इसी प्रकार लोभी गुरु उपदेश देकर तथा लालची भक्त उपदेश सुनकर भी जीवन को उन्नत नहीं बना पाते । दोनों ही मझधार में गोते लगाते रहते हैं । इसलिए जैसे कि अभी योगशास्त्र के एक श्लोक में गुरु के लक्षण बताये गये हैं, उनके विद्यमान रहने पर ही हमें किसी को गुरु मानना चाहिए तथा उनके सदुपदेशों से लाभ उठाकर संवर, निर्जरा एवं मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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