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हे धर्म ! तू ही जग का सहारा ३०१
आदि जन्तुओं से उसे बचाकर सुरक्षित रखना चाहिए। यह भी ख्याल रखना चाहिए कि अज्ञान के झोंके उसे आत्मा से पुनः अलग न कर दें तथा अविश्वास एवं शंका रूपी कीड़े पकने से पहले ही फल को खोखला न बना दें ।
पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने धर्म-भावना के विषय में लिखा है
अहो चिदानन्द परछन्द बन्ध भयावह
देख तू सिद्धांत संदबंद दुखदायी है । देव गुरु धर्म तीन, निश्चय व्यवहार चिह्न,
समकित सत्य बिन नाम ये भराई है || यह सन्तसार यार तजे सो कुवार होई,
एक बार फंसे से तो निश्चय बुराई है । आदिश्वर नन्द सुखकंद भाई भावना को,
कहत तिलोक भावे सोही मुक्ति जाई है | कविश्री पद्य में बड़ी मार्मिकता से अपनी आत्मा को ही समझाते हैं और यही महानता का लक्षण हैं । हम देखते ही हैं कि इस संसार में लोग अपने अवगुण नहीं देखते, औरों के देखते हैं । स्वयं को उपदेश नहीं देते, दूसरों को देने के लिए तैयार रहते हैं ।
संस्कृत में कहा भी है-.
“परोपदेशे पांडित्यम् सर्वेषाम् सुकरं नृणाम् । "
यानी - दूसरों को उपदेश देने से पांडित्य का प्रदर्शन करना मनुष्यों के लिए बड़ा सरल है |
वस्तुतः औरों को शिक्षा देने का जहाँ सवाल है, वहाँ मनुष्य नहीं चूकता । फौरन अनेक बातें सीख के रूप में कह देता है । जैसे - " दान दो, शील पालो, तप करो, इत्यादि इत्यादि ।” किन्तु अगर उन्हीं बातों को स्वयं करने का प्रसंग आ जाता है तो धन पर आसक्ति होने के कारण वह खर्च नहीं किया जाता, मन पर वश न होने से शील नहीं पाला जाता और शरीर को कष्ट होता है इसलिए तपाचरण नहीं होता । इसीलिए कहा गया है कि औरों को उपदेश देना सरल है पर उस उपदेश को स्वयं अपने आचरण में उतारना कठिन है ।
किन्तु संसार के सभी मानव एक सरीखे नहीं होते । कुछ ऐसे महामानव होते हैं जो औरों को उपदेश देने से पहले उसे अपने जीवन में उतारते हैं ।
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