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________________ ३०२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग दूसरे शब्दों में जब वे अपने जीवन को दोष-रहित बना लेते हैं, तब औरों को दोषों या दुर्गुणों का त्याग करने के लिए कहते हैं । पूज्यश्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ही ऐसे महापुरुष थे। वे अपनी आत्मा से ही कहते हैं- "हे आत्मन् ! तू अपनी ओर देख तथा अपने स्वरूप की पहचान कर । दूसरा क्या करता है, उस ओर तुझे देखने की आवश्यकता ही क्या है ? तेरी आत्मा ही तुझे संसार-सागर में डुबोने वाली है और वही इससे पार उतारने वाली भी है।" ___आगे कहा है-"दूसरों के स्वभाव-धर्म को पकड़ना छन्द है, तकलीफ देने वाला है । यहाँ जानने की आवश्यकता है कि 'स्व-धर्म और 'पर-धर्म' क्या है ? स्व-धर्म है अपनी आत्मा में रहा हुआ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तथा शक्ति, संतोष एवं सरलता आदि और पर-धर्म है क्रोध, मान, माया, लोभ, राग एवं द्वष आदि ।" तो निज-धर्म को छोड़कर पर-धर्म को अपनाना अत्यन्त हानिकर एवं भयावह है । भगवद्गीता में तो यहाँ तक कहा गया है कि - "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।" अर्थात्-निज-धर्म में रमण करते हुए तो मरण भी श्रेयस्कर है किन्तु पर-धर्म को अपनाना उससे कई गुना भयानक एवं कष्टकर है । उदाहरणस्वरूप स्व-धर्म में रमण करने वाले प्राणी संसार-सागर से तैर गये, किन्तु पर-धर्म को ग्रहण करने वाले आज भी कुख्यात हैं तथा निन्दा के पात्र बनकर स्मरण किये जाते हैं । यथा-पूर्वजन्म में मुनि होने पर भी क्रोध के कारण उनका जीव चण्ड कौशिक सर्प बना, उस योनि में नाना यातनाएँ सहीं और आज भी किसी क्रोधी को उपमा देने के लिए चण्डकौशिक सर्प को याद किया जाता है। . मान के कारण रावण, दुर्योधन और दुःशासन की क्या दशा हुई थी इसे आप अच्छी तरह जानते ही हैं । वे लोग निन्दा और धिक्कार के ऐसे पात्र बने कि प्रातःकाल उनका नाम लेना भी कोई पसन्द नहीं करता और न ही कोई भूलकर भी अपने बच्चों का रावण, कंस या दुर्योधन नाम ही रखता है । इसी प्रकार माया या कपट का हाल है। 'सत्यकोष चरित्र' में वर्णन है कि कपट के कारण गोबर खाया गया, फिर भी सत्य बाहर आ ही गया। चौथा कषाय लोभ है । लोभी व्यक्ति की दुर्दशा भी हम आये दिन देखते रहते हैं। इसी जीवन में और अगले जीवन में तो उनका भगवान ही मालिक होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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