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________________ हे धर्म ! तू ही जग का सहारा + +++++++++++ धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! हमारा विषय संवर तत्त्व के सत्तावन भेदों को लेकर चल रहा है और उनमें से चालीस भेदों पर विवेचन किया जा चुका है। आज इकतालीसवें भेद को लेना है जो कि 'धर्म-भावना' है। यह भावना बारह भावनाओं में से ग्यारहवीं है तथा आत्मा का उद्धार करने वाली है। __आप जानते हैं कि धर्माचरण से जीवात्मा कर्म-मुक्त होता है, किन्तु धर्माचरण से पहले धर्म-भावना अन्तर्मानस में आनी चाहिए, तभी वह धीरे-धीरे आचरण को धर्ममय बना सकेगी। उदाहरणस्वरूप वृक्ष में पहले फूल आते हैं और तब फल होते हैं । पर बड़ी गम्भीरता से विचार किया जाय तो एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात सामने आती है कि वृक्ष में जितने फूल लगते हैं, उतने फल नहीं लगते क्योंकि हवा के झोंकों से या किसी भी प्रकार के साधारण आघात से ही अनेक फूल झड़ जाते हैं । इसके पश्चात् जितने फूल, फल में परिणत होते हैं वे भी सभी नहीं पक पाते, क्योंकि अनेक प्रकार के पक्षी या गिलहरी आदि जानवर कच्चे फलों को खाते हैं या कुतर-कुतर कर पेड़ से गिरा देते हैं। यही हाल धर्माचरण का भी होता है। धर्माचरण फल है और धर्म-भावना फूल, जिसके पहले आने पर ही आचरण रूपी फल प्राप्त होता है। भले ही अनेक बार धर्म-भावना रूपी फूल आने पर भी आचरण रूपी फल हासिल नहीं हो पाता; क्योंकि भावना मिथ्यात्व, प्रमाद, कुसंग या सन्देह के कारण बदल जाती है या मिट जाती है, पर फल हासिल तो तभी होगा, जबकि भावना रूपी फूल पहले होगा ही। __इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु को धर्माचरण से पहले धर्म-भावना का चिन्तन करना चाहिए और उसके मानस में उत्पन्न हो जाने पर कषाय एवं मिथ्यात्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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