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________________ सोचो लोक स्वरूप को २६६ "यह छह द्रव्यमय लोक स्वयं से ही अनादि अनन्त है तथा सभी द्रव्य स्वस्वरूप में स्थित रहकर निरन्तर अपनी पर्यायों से उत्पाद एवं व्यय रूप परिणमन करते रहते हैं। किसी द्रव्य का दूसरे में अधिकार नहीं है; ऐसा यह लोक मुझसे भिन्न है, मैं भी इससे भिन्न हूँ । मेरा स्वरूप तो शाश्वत चैतन्य लोक है । समता या वीतरागता के अभाव में जीव कर्म-बन्धन करता हुआ तीनों लोकों में भ्रमण करता रहता है तथा नाना प्रकार के दुःख भोगता है। इसलिए मुझे इस दुःखमय लोक से मुक्त होना है तथा शुभ करणी करके शिवलोक में शाश्वत आनन्द प्राप्त करना है।" जो भव्य प्राणी इस प्रकार 'लोक-भावना' भाते हैं, वे निश्चय ही अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके पाँचवीं गति या मोक्ष-लोक को हासिल करते हैं । कहा भी है विषयों से कर विमुख मन, करो सदा शुभ ध्यान । सोचो लोक स्वरूप को, पाओ पद निर्वाण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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