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________________ कर कर्म - निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना अच्छाइयाँ छोड़ सकते हैं और चाहें तो अच्छाइयों को ग्रहण करके बुराइयों का त्याग कर सकते हैं । आवश्यकता है हमारी ग्राह्य-शक्ति को अच्छाइयों की तरफ रखने की और उनसे लाभ उठाने की। इतना ही नहीं, हम चाहें तो बुरी वस्तुओं में से भी अच्छाई निकाल सकते हैं । उदाहरणस्वरूप हमारे पाँच इन्द्रियाँ हैं । इन्हीं से हम अच्छे काम कर सकते हैं और बुरे भी। एक इन्द्रिय कान है । पर इनसे अगर अश्लील गाने सुने जा सकते हैं तो क्या भक्तिपूर्ण भजन और आत्मानन्द को जगाने वाले वैराग्यरस के गीत नहीं सुने जा सकते ? चक्षु भी इन्द्रिय है । इनसे भी नाटक-सिनेमा या उत्तेजक चित्रादि देखने के बजाय क्या देव-दर्शन, संत दर्शन या महापुरुषों और वीतरागों के चित्र देखकर अपने चित्त को भी उन्हीं के समान निर्दोष बनाने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता ? रसनाइन्द्रिय से भी मांस, शराब एवं अभक्ष्य सेवन करने और क्रूर, कटु तथा अश्लील शब्दों का उच्चारण करने की बजाय लोलुपतारहित भाव से निर्दोष पदार्थों को ग्रहण करते हुए साधना में शक्ति नहीं बढ़ाई जा सकती क्या ? साथ ही असभ्यतापूर्ण एवं व्यर्थ प्रलाप न करके वाणी से भगवद्भजन एवं ईश-प्रार्थना करके क्या मन को निर्मल नहीं बनाया जा सकता ? इस प्रकार हमारे पैर जो सैर-सपाटे की ओर तथा सिनेमाघरों और वेश्याओं के मुहल्ले की ओर उठते हैं, क्या उन्हें मन्दिर, धर्म - स्थानक या तीर्थों में नहीं ले जाया जा सकता ? २७६ अवश्य ले जाया जा सकता है । सभी इन्द्रियों को निश्चय ही अगर व्यक्ति चाहे तो अशुभ प्रवृत्तियों की ओर से हटाकर शुभ में प्रवृत्त किया जा सकता है महापुरुषों ने ऐसा ही किया भी है, इसीलिए यह पृथ्वी जो दुर्जनों के लिए पापधाम बनती है, उनके लिए पुण्य-धाम बन जाती है । अन्तर केवल दृष्टि का है । इस विषय में एक सुन्दर उदारहण भी है जो शायद एक बार मैंने आपके समक्ष रखा था पर प्रसंगवश पुनः संक्षेप में रखता हूँ । दुःख धाम और सुख धाम किसी गाँव के बाहर उस गाँव का एक वयोवृद्ध व्यक्ति एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ था । पेड़ मार्ग के किनारे पर था जिसके द्वारा पिछले गाँव से गुजरते हुए आगे भी जाया जाता था । अतः कुछ समय पश्चात् एक यात्री उस मार्ग से चलता हुआ वृद्ध के समीप आया और उसी पेड़ के नीचे विश्राम करने बैठ गया । यात्री के पास छोटा सा बिस्तर, थैला और इसी प्रकार का काफी सामान था । यह देखकर वृद्ध पूछ लिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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