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________________ २७८ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग कविता में आगे कहा है मन और इन्द्रियाँ वश में हैं हो जाती, जिनकी चेतन में चित्तवृत्ति रम जाती। धारा जिन सत्पुरुषों ने सुविरति बाना, कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना। है मानव-जीवन सफल उसी नरवर का, जिसने सोखा जल सकल कर्म-सागर का। अति पुन्यधाम महिमानिधान जग जाना, कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना। जो महापुरुष अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को समझ लेते हैं तथा इस पर दृढ़ विश्वास करते हैं कि हमारे अन्दर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं अनन्तचारित्र रूप असीम शक्ति का सागर लहरा रहा है, उनका मन सदा अपनी आत्मा में रमण करता रहता है और इसके कारण पाँचों इन्द्रियाँ भी संयमित रहती हैं। इन्द्रियों का संयम संवर का हेतु बनता है तथा निर्जरा की ओर मन को प्रेरित करता रहता है । ऐसे संयमित मन और इन्द्रियों वाले भव्य पुरुष कर्मरूपी असीम सागर के जल को सुखाकर अपने जीवन को सार्थक बना लेते हैं । तथा मोक्ष प्राप्ति के रूप में सर्वोच्च फल प्राप्त करते हैं। यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि जो व्यक्ति आत्मा पर, कर्मों पर, पाप-पुण्य पर एवं परलोक पर विश्वास करते हैं वे इस जगत को असार और हेय न मानकर महामहिम और पुण्य का धाम मानते हैं। आप कहेंगे-“ऐसा क्यों ? यह संसार तो दुःखों से भरा हुआ है तथा आत्मा को भिन्न-भिन्न गतियों में भटकाने वाला है । फिर यह पुण्य-धाम कैसे कहला सकता है ?" बन्धुओ, इस प्रश्न के उत्तर में हमें सावधानी से विचार करना है । बात यह है कि संसार मनुष्य को अपनी विचारधारा के अनुसार ही अच्छा या बुरा दिखाई देता है । दूसरे शब्दों में, जिसकी गुण-दृष्टि होती है, वह संसार में अच्छाई देखता है और जिसकी दोष-दृष्टि होती है वह मात्र बुराई का अवलोकन करता है। पृथ्वी पापधाम है या पुण्यधाम ? यह सत्य है कि हमारे समक्ष इस पृथ्वी पर अच्छी और बुरी सभी वस्तुएँ बिखरी पड़ी हैं, पर यह भी सत्य है कि हम चाहें तो बुराइयों को ग्रहण करके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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