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कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना
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के कारण दोष तो हममें भी हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो कर्मों से सर्वथा मुक्ति हासिल हो जाती । कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में गुण और अवगुण होते हैं अतः एक का दूसरे के अवगुण देखना और उनकी आलोचना करना निरर्थक है।
महामूर्ख हूं? कहते हैं कि एक बार स्वामी दयानन्द सरस्वती किसी कॉलेज में भाषण देने के लिए आमन्त्रित किये गये। स्वामीजी समय पर वहाँ पहुंचे और अपने स्थान पर बैठे।
आप जानते ही हैं कि कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र जितना पढ़ते हैं, उसकी अपेक्षा शैतानियाँ अधिक करते हैं । एक ऐसे ही उदंड छात्र ने स्वामीजी से कहा
"महाराज आपसे एक प्रश्न पूछ ?' "अवश्य पूछो !" दयानन्द सरस्वती ने उत्तर दिया । छात्र ने पूछा-"आप विद्वान हैं या मूर्ख ?'
प्रश्न सुनकर स्वामी जी तनिक भी क्रोधित न हुए और न ही आवेश में आए । उन्होंने पूर्ववत् सौम्य चेहरे से उत्तर दिया- "भाई ! मैं विद्वान भी हूँ और मूर्ख भी।"
अब चकराने की बारी छात्र की थी। वह स्वामी जी का उपहास करना भूलकर आश्चर्य से बोला-"वह कैसे ?"
"इस प्रकार कि संस्कृत भाषा में लोग मुझे विद्वान कहते हैं पर मैं बढ़ईगीरी, खेती एवं डॉक्टरी आदि अनेक विषयों में महामूर्ख हूँ, कुछ भी नहीं जानता।" ____ स्वामी जी के ऐसे शांतिपूर्ण एवं सच्चाई के साथ दिये गये उत्तर से वह विद्यार्थी अपने मूर्खतापूर्ण प्रश्न के लिए बड़ा लज्जित हुआ और उसने उनसे नम्रतापूर्वक क्षमा याचना की।
इस उदाहरण से यही शिक्षा लेनी चाहिए कि हम कभी औरों के अवगुणों को खोजने का प्रयत्न न करें। अन्यथा हमें ही शर्मिन्दा होना पड़ेगा तथा किसी की निन्दा या उपहास करने से हमारी आत्मा मलिन एवं दोषयुक्त बनेगी। परिणाम यह होगा कि कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करने की महान् अभिलाषा भव-सागर के अतल में विलीन हो जायेगी।
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