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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
भला कर्म - निर्जरा कैसे होगी ? तप का ढिंढोरा पिट जाने से और तपस्वी कहला जाने से कभी तप का सच्चा लाभ हासिल हो सकता है ? यानी कर्म झड़ सकते हैं ? कभी नहीं । मैंने अभी कहा भी था कि मनुष्यों की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है पर कर्मों की आँखों में नहीं । वे मनुष्य की भावनाओं को ज्यों का त्यों पढ़ लेते हैं और उन्हीं के अनुसार आकर आत्मा को घेर लेते हैं । इसलिए तप का महत्त्व तथा निर्जरा के रहस्य को समझकर ही तपानुष्ठान करना चाहिए |
कविता में आगे कहा गया है
जननी ममत्व की यह नश्वर काया है, अत्यन्त अशुचि दुखधाम महामाया है । रत्नत्रय को ही द्वार मुक्ति का जाना, कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना | अपने अवगुण की जो निन्दा करते हैं, पर पर - निन्दा से सदा काल डरते हैं । गुणवानों के सद्गुण का गाते गाना,
कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना ।
जो महापुरुष शरीर को मोह-ममता की जननी और अशुद्ध, नश्वर तथा दुःख का घर समझ लेते हैं, साथ ही सम्यक्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूपी रत्नत्रय की आराधना करते हैं, वे ही अन्त में कर्मों से मुक्त होते हैं ।
इसके अलावा साधु-पुरुष कभी औरों के अवगुणों को देखकर उनकी निन्दा नहीं करते । वे अपने ही दोषों को देखते हैं तथा उनकी निन्दा करते हुए पश्चात्ताप करते रहते हैं । महात्मा कबीर ने आत्मानुभव से कहा है
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय | जो दिल देख्या आपना, मुझ सा बुरा न कोय ॥
तो बन्धुओ, महापुरुष पर - निन्दा न करके स्व-निन्दा करते हैं और इस प्रकार एक-एक अवगुण अपनी आत्मा में से खोजकर नष्ट कर देते हैं । तभी उनकी आत्मा निर्मल बनती है तथा परमात्म-पद की प्राप्ति होती है ।
वस्तुतः इस संसार में सर्वगुणसम्पन्न तो कोई भी व्यक्ति नहीं होता, तब फिर हम औरों के अवगुणों को ढूंढ़कर और उनकी निन्दा करके अपने जीवन का अमूल्य समय क्यों वृथा करें, साथ ही कर्म - बन्धन में बँधे ? छद्मस्थ होने
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