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कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना
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क्यों लेना चाहिए ? यह विचार जो करते हैं, वे मोक्ष रूपी सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर लेते हैं।
(२) सकाम निर्जरा-यद्यपि अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मों झड़ना तो अज्ञानी को भी होता रहता है। किन्तु उसे शुद्धि का कारण या निर्जरा नहीं कहा जा सकता । सकाम निर्जरा तब कहलाती है, जबकि सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र द्वारा तप करके व्यक्ति अपने कर्मों का नाश करता है और ऐसे समय में उसके सामने जो उपसर्ग और परिषह आते हैं उन्हें वह पूर्ण समभाव से सहन कर लेता है । हमारे आगम कहते हैं
जह पंसु गुडिया, विहुणिय धंसयई सियं रयं ।
एव दविओवहाणवं, कम्मं खवई तवस्सि माहणे ॥ ___ अर्थात्-सच्चा तपस्वी अपने उज्ज्वल तप से कृत कर्मों को बहुत शीघ्र समाप्त कर देता है, जैसे पक्षी अपने परों को फड़फड़ाकर उन पर लगी हुई धूल झाड़ देता है।
ऐसी तपस्या किस काम की ? खेद की बात है कि आज हमारे समाज में तप करने की विशेष परम्परा तो है पर उसके साथ दान, दया, सामायिक, स्वाध्याय, ज्ञान-ध्यान एवं चिन्तनमनन आदि की प्रवृत्ति का लोप हो गया है । तपस्या खूब की जाती है महीनेमहीने तक की और उससे भी अधिक, किन्तु उस समय कर्मों की निर्जरा के प्रति जो एकान्त उत्साह होना चाहिए तथा आरम्भ-परिग्रह कम से कम किया जाना चाहिए वह नहीं होता । तप के नाम पर जीमनवार होते हैं, जिनमें हजारों रुपये खर्च किये जाते हैं, हजारों रुपये नारियल, बतासे, लड्डु या अन्य चीजों को बाँटने में पूरे किये जाते हैं और पीहर व सम्बन्धियों के घरों से वस्त्राभूषण आते हैं वह अलग । इसी प्रकार खूब गीत गाये जाते हैं, धूमधाम से जुलूस निकलता है और कहा जाता है बड़ी भारी तपस्या की गई।
कई बार तो आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर लोग बहू-बेटियों को अठाई आदि तप करने से मना कर देते हैं और बहनें भी तपस्या करने का विचार छोड़ देती हैं कि जब धूम-धाम नहीं होगी, वस्त्राभूषण नहीं आएंगे और जीमण आदि के अभाव में लोगों को उनकी तपस्या का पता भी नहीं चल पायेगा तो फिर करने से क्या लाभ है ? यह हाल है आज के तप का। ऐसी स्थिति में
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