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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
सहता है यही महत्त्वपूर्ण है और उसी पर निर्जरा का होना न होना निर्भर करता है।
खाना न मिल पाने से भिखारी छः दिन तक भूखा रहता है पर भूख के कष्ट को वह कितने आर्त-ध्यान एवं शोक से सहता है ? अन्न के दाने प्राप्त करने के लिए वह कितना व्याकुल रहता है ? तो ऐसे भूखे रहने से क्या उसके कर्मों की निर्जरा होगी ? नहीं, निर्जरा उस व्यक्ति के कर्मों की होगी जो भोजन प्राप्त होने पर भी उसका एक-दो या अधिक दिन के लिए पूर्ण शान्ति तथा सन्तोष से त्याग करेगा और वह समय धर्म-क्रिया, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन और आत्म-रमण में लगायेगा ।
कर्मों की निर्जरा किस प्रकार व्यक्ति कर पाते हैं या कर चुके हैं, इस विषय में कहा गया है
सह लेते हैं जो दुष्ट वचन हँस करके, उत्तेजित होते क्रोध में न फँस करके । उपसर्गों को उपकारक जिनने माना, कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना । उपसर्ग और परिषह है ऋण का देना, बदला लेकर क्यों नया कर्ज फिर लेना ? मानापमान जिनने समान पहचाना,
कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना ॥ कवि ने सरल भाषा में समझा दिया है कि जो क्षमाशील व्यक्ति औरों के कटु-वचनों को मुस्कुराते हुए शान्त भाव से और तनिक भी उत्तेजित हुए बिना सहन कर लेते हैं तथा उपसर्गों को अपने कर्मों की निर्जरा का संयोग समझ कर उन्हें उपकारी मानते हैं, वे ही मोक्ष रूपी ठिकाना प्राप्त करते हैं । __ ऐसे भव्य प्राणी सदा यही भावना रखते हैं कि उपसर्ग और परिषह तो ऋण है जिसे चुकाना पड़ेगा। यानी पूर्व में जो कर्म-बन्धन किये हैं उन्हें तो भोगना ही है । फिर क्यों नहीं समाधि-भाव और शान्तिपूर्वक प्रसन्नता से वह चुकाया जाय ? ऐसा करने पर कर्ज चुक जायेगा यानी कर्म झड़ जायेंगे; किन्तु उस कर्ज को चुकाते समय यानी उपसर्गों और परिषहों को सहन करते समय अगर पुनः आर्तध्यान किया और हाय-हाय करते रहे तो नये कर्मों का बन्धन होगा अर्थात फिर से कर्मों का कर्ज सिर पर सवार हो जाएगा। कवि का भी यही कहना है कि पुराने कर्ज को चुकाते हुए उसके बदले में फिर से नया कर्ज
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