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१६ आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
अर्थात्-जिसका आचरण हो सके, उसका आचरण करना चाहिए एवं जिसका आचरण न हो सके, उस पर श्रद्धा रखनी चाहिए। धर्म पर श्रद्धा रखता हुआ जीव भी जरा एवं मरणरहित मुक्ति का अधिकारी होता है ।
तो बन्धुओ, ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होने पर ज्ञान प्राप्त होना बड़े सौभाग्य की बात है किन्तु उसके प्राप्त न होने पर भी अपने जीवन को निरर्थक मानना उचित नहीं है। मोक्ष-पथ के पथिक को तो दोनों ही अवस्थाओं में समभाव रखना चाहिए। स्वयं को बुद्धिहीन समझकर साधक को अपनी बुद्धि अथवा प्रज्ञा की मन्दता पर दुःख करते हुए आर्तध्यान न करके उसे प्रज्ञापरिषह समझना चाहिए तथा उस पर विजय प्राप्त करके संवर-मार्ग पर दृढ़ कदमों से बढ़ना चाहिए।
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