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________________ प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो ? १५ देखकर दंग रह गये । पर किसान ने किसी की ओर भी नहीं देखा और सीधा जाकर पंडितजी के चरणों पर गिरता हुआ बोला __ "आप सचमुच भगवान के रूप हैं पंडितजी ! और रोज ही भगवान से मिलते हैं। किन्तु आपके बताने पर मैंने तो आज एक बार ही भगवान के दर्शन कर लिए इसी में मेरे तो जनम-जनम सफल हो गये।" पंडितजी की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गयीं पर वे मन में समझ गये कि किसान की भक्ति सच्ची है मैं तो केवल दिखावा करता हूँ और इसीलिए बरसों गंगा-स्नान करने पर और पूजा-पाठ पढ़ने पर भी मुझे भगवान के दर्शन नहीं हो सके । मेरी विद्वत्ता और शास्त्रों के ऐसे ज्ञान से क्या लाभ है, जबकि मुझ में उसका गर्व है और पंडित कहलाने की हृदय में आकांक्षा बनी हुई है। मुझसे तो यह निरक्षर किसान ही अच्छा है जिसके हृदय में भगवान के प्रति दृढ़ श्रद्धा और सच्ची लगन है । ___ बन्धुओ, इस उदाहरण से आप समझ गये होंगे कि भगवान ने ज्ञान प्राप्त करने पर भी उसका गर्व न करने का तथा उसकी प्राप्ति न होने पर खेद-खिन्न न होने का आदेश क्यों दिया है ? वस्तुतः ज्ञान प्राप्त कर लेने से ही व्यक्ति की आत्मा संसार-मुक्त नहीं हो जाती और न ही उसके अभाव से वह संसार-भ्रमण करती ही रहती है। आत्मा की कर्मों से मुक्ति धर्म के द्वारा होती है और धर्म है आत्मा की शुद्धि होना । श्री स्थानांगसूत्र में कहा गया है चत्तारि धम्मदारा।। खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे ॥ अर्थात्-क्षमा, संतोष, सरलता और नम्रता-ये चार धर्म के द्वार हैं। गाथा से स्पष्ट है कि जो भव्य पुरुष इन चारों को अपनाता है, धर्म उसके हृदय में निवास किये बिना नहीं रह सकता। धर्म संसार के समस्त संतापों का शमन करके आत्मा को अनन्त शांति की उपलब्धि कराता है । आवश्यकता केवल इस बात की है कि साधक निरंतर अपने दोषों और त्रुटियों की ओर दृष्टि रखे तथा वीतराग के वचनों पर दृढ़ श्रद्धा रखता हुआ अपने आचरण को श्रेष्ठ बनाए। श्रद्धा की महत्ता के विषय में कहा गया है जं सक्कं तं कीरइ, जं न सक्कइ तयम्मि सद्दहणा। सद्दहमाणो जीवो, वच्चइ अयरामरं ठाणं ॥ -धर्मसंग्रह २।२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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