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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
दिन भगवान मिलते हैं । मैं मूर्ख और अपढ़ हूँ, पर क्या मुझे भगवान केवल एक दिन भी दर्शन नहीं देंगे ?'
उसके मन में बड़ी उथल-पुथल मच गई और सारी रात वह भगवान के दर्शन की उत्कण्ठा लिये जागता रहा । अगले दिन वह पौ फटने से पहले ही गंगा की ओर दौड़ा। वह सोच रहा था कि भगवान कहीं पंडितजी को दर्शन देकर चले न जाँय ।
गंगा के तट पर पहुंचते ही उसने अपने कपड़े उतारे और जल में छलांग लगा दी । पानी के अन्दर ही वह हाथ जोड़कर और पालथी लगाकर बैठ गया तथा मन ही मन भगवान को पुकारने लगा।
इधर गंगा-स्नान के लिए आते हुए पंडितजी ने जब उसे नदी में कूदते हुए और शीघ्र वापिस निकलते हुए नहीं देखा तो सोचने लगे-'यह मूर्ख पानी में ही मर जाएगा और मेरे सिर हत्या आएगी', यह सोचकर आसपास के लोगों को अपनी सफाई देते हुए देखी हुई सारी घटना बता दी।
लोग भी एक प्राणी की जान जाती देखकर चिन्ता में पड़ गए और तैरना जानने वालों को पुकार कर शोरगुल मचाने लगे। इसी में काफी समय निकल गया।
किन्तु सच्चा भक्त पानी में हठपूर्वक आसन जमाये बैठा था और कह रहा था- "प्रभु! आज तो आपके दर्शन किये बिना बाहर नहीं निकलूंगा चाहे जान चली जाय ।”
सच्चे भक्त की पुकार सचमुच ही भगवान को सुननी पड़ती है, और हुआ भी यही । किसान की निश्छल पुकार को सुनकर और यह भली-भाँति समझकर कि आज यह भोला भक्त जान दे देगा, भगवान को आकर उसे दर्शन देना पड़ा।
किसान तो मानों निहाल हो गया और उनके चरणों में गिर पड़ा । भगवान ने पूछा--"वत्स ! तूने मुझे जीत लिया है, अब बोल क्या चाहता है ?"
गद्गद होकर वह बोला--"प्रभो! आपके दर्शन हो गये फिर मेरे लिए और क्या माँगने को रह गया ? मुझे कुछ नहीं चाहिए, दर्शन ही चाहिए थे वह हो गये । मेरा तो जीवन धन्य हो गया।" ____ अब किसान खुशी से फूला न समाता हुआ पानी से बाहर आया। किनारे पर भीड़ इकट्ठी हो गई थी और पंडितजी भी राम-नाम जपते हुए एक ओर खड़े थे। लोग तो लाश के स्थान पर किसान को बड़े आनन्द से आता हुआ
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