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प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो ?
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महान् कार्य एक जन्म में सम्पन्न न हो पाए किन्तु प्रयत्न करते रहने पर क्रमशः आगामी भवों में मुक्ति का द्वार उसके निकट आता जाएगा।
इसके अलावा प्रायः देखा जाता है उच्च ज्ञान अहंकार का कारण , बनता है और अहंकार एक ऐसी मजबूत दीवार होती है जो आत्मा को परमात्मा नहीं बनने देती या दूसरे शब्दों में भगवान की प्राप्ति में बाधक बन जाती है । इस सम्बन्ध में मैंने कहीं एक छोटी सी कथा पढ़ी थी वह इस प्रकार हैअपढ़ भक्त का भगवत् दर्शन
किसी शहर में एक पंडित रहते थे। उनके लिए कहा जाता था कि वे अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे और आध्यात्मिक ज्ञान का गूढ़ अध्ययन कर चुके थे।
पंडितजी प्रतिदिन गंगा-स्नान के लिए जाया करते थे और पाँच बार सूर्य देवता को जल-अर्पण करके पाँचों बार ही गंगा में डुबकियाँ लगाया करते थे।
उनकी इस क्रिया को एक भोला किसान प्रतिदिन देखता था क्योंकि वह उसी समय अपने बैलों को लेकर खेत की ओर जाया करता था। किसान बड़ा सरल, ईमानदार एवं भगवान का भक्त था । वह भी प्रातःकाल मंदिर में जाकर भगवान की प्रतिमा के समक्ष मस्तक झुकाता था और तत्पश्चात् अपनी दिनचर्या प्रारंभ करता था। वह पंडितजी पर बड़ी श्रद्धा रखता था और उन्हें भगवान का दूसरा रूप मानकर दूर से ही हाथ जोड़ लिया करता था।
किन्तु एक दिन जब पंडितजी से उसका सामना हुआ तो वह पूछ बैठा"भगवन् ! आप तो स्वयं ही भगवान के अवतार हैं, पर कृपा करके बताइये कि आप गंगा मैया में पांच बार डुबकियाँ किसलिए लगाते हैं ? मैं तो महामूर्ख हूँ, अतः आपसे कुछ सीखना चाहता हूँ।" ___पंडितजी अपनी विद्वत्ता के कारण किसान जैसे अज्ञानी लोगों से बात करने में भी अपनी हेठी समझते थे और फिर स्वयं को भगवान का दूसरा रूप कहने पर तो और भी फूलकर कुप्पा हो गये थे । वे किसान को अत्यन्त तुच्छ समझकर झुंझलाते हुए बोले___ "बेवकूफ ! तू भक्ति का मर्म क्या जानेगा ? मैं जो कुछ करता हूँ उससे भगवान मिलते हैं।" इतना कहकर पंडितजी चल दिये पर किसान बेचारा बड़ा भला और भोला था। उसके मन में कहीं किसी पाप की छाया नहीं थी। वह अवाक् खड़ा सोचने लगा--'पंडितजी बड़े ज्ञानी और भक्त हैं अतः उन्हें प्रति
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