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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
लाभ नहीं मिल सकेगा' ऐसे विचार उसके चित्त में कभी नहीं आने चाहिए । ऐसे साधक को केवल यही सोचना चाहिए कि मेरे ज्ञानावरणीय कर्मों का उदय है और इनका उदय में रहना प्रज्ञा-परिषह है, जिसे मुझे समभाव से सहन करना है। मानव-जीवन का उद्देश्य __गम्भीरता से विचार किया जाय तो मानव-जीवन का उद्देश्य पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त कर लेना ही नहीं है अपितु आत्मा को कर्मों से मुक्त करना है। हमारा इतिहास तो बताता है कि अनेक प्राणी जिन्होंने किताबी ज्ञान प्राप्त नहीं किया वे भी अपनी आत्मा को सरल, शुद्ध एवं कषायरहित बनाकर इस संसार से मुक्त हो गये हैं। शास्त्र भी कहते हैं
सव्वारंभ-परिग्गह णिक्खेवो सव्वभूतसमया य । एक्कग्गमण समाहीणया य, ऊहएत्तिओ मोक्खो ॥
-बृहत्कल्पभाध्य ४५८५ अर्थात्-सब प्रकार के आरम्भ और परिग्रह का त्याग, सब प्राणियों के प्रति समता और चित्त की एकाग्रतारूप समाधि-बस इतना मात्र ही मोक्ष है। ___ गाथा में मुक्ति की कितनी सरल, स्पष्ट और यथार्थ परिभाषा दी गई है ? वस्तुतः जिस प्राणी की आत्मा वैर-विरोध, मोह-माया एवं कषायों से रहित होती है तथा सांसारिक सुखों और भोग-विलास के साधनों के प्रति जिसकी पूर्णतया उपेक्षा होती है, उसकी मुक्ति न हो यह कैसे हो सकता है ?
इसलिए प्रत्येक मोक्षाभिलाषी को भले ही उच्च ज्ञान हासिल न हो सके किन्तु फिर भी अपने वर्तमान जीवन से कदापि निराश न होना चाहिए तथा ज्ञान-प्राप्ति न होने पर भी आर्तध्यान, खेद, दुःख या हीनता का भाव मन में न लाते हुए अपने मानस को सरल, कषायरहित, सेवा, त्याग, सद्भाव एवं तपादि सद्गुणों से युक्त बनाते हुए जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि जो व्यक्ति उच्च ज्ञान प्राप्त करता है वही मुक्ति का अधिकारी बन सकता है । अगर ऐसा होता तो अर्जुनमाली जैसा हत्यारा और अंगुलिमाल जैसा क र डाकू किस प्रकार संसार से मुक्त होता ? प्रत्येक मुमुक्षु को यह विश्वास रखना चाहिए कि आत्मा कर्मों से कितनी भी बोझिल क्यों न हो अगर प्राणी उसे शुभ और दृढ़ संकल्प के द्वारा पापों से बचाता रहे तो शनैः-शनैः वह मुक्ति की ओर निश्चय ही बढ़ेगी। भले ही यह
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