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________________ प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो? ११ ज्ञान-प्राप्ति का तीसरा कारण या साधन है-धर्म जागरण करना । धर्माराधन अथवा ज्ञानाराधन के लिए शास्त्रों में सबसे उपयुक्त समय रात्रि का बताया गया है । दिन के समय कोलाहल बना रहता है तथा नाना प्रकार की बाधाएँ उपस्थित होकर साधक के मन की एकाग्रता को भंग कर देती हैं । किन्तु रात्रि के समय सांसारिक शोर नहीं रहता तथा वातावरण पूर्णतया शांत हो जाता है, अतः उस समय ज्ञानाराधन सुचारु रूप से किया जा सकता है । इसलिए साधक को रात्रि के समय ही अधिकांश ज्ञान दोहराना या कंठस्थ करना चाहिए। अब आता है ज्ञान-प्राप्ति का चौथा कारण । वह है-शुद्ध एवं पवित्र आहार करना । प्रथम तो ज्ञानार्थी को सदा अल्पाहार करना चाहिए । अधिक मात्रा में लूंस-ठूसकर खाने से जीवन में आलस्य बढ़ता है और आलस्य ज्ञानप्राप्ति में घोर बाधक बनता है । कहा भी है तहा भोतव्वं जहा से जाया माता य भवति । न य भवति विन्भमो, न भंसणा वा धम्मस्स ॥ -प्रश्नव्याकरण २/४ अर्थात् ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए, जो जीवनयात्रा एवं संयमयात्रा के लिए उपयोगी बन सके, और जिससे किसी प्रकार का विभ्रम न हो तथा धर्म की भंसना भी न हो। कहने का अभिप्राय यही है कि धर्म-साधना हो या ज्ञान-साधना, उसे भलीभाँति चलाने के लिए अल्प और शुद्ध आहार करना आवश्यक है। अधिक खाने से आलस्य बढ़ता है और माँस-मदिरादि तामसिक वस्तुओं को ग्रहण करने से मन और मस्तिष्क में विकृति आती है तथा बुद्धि मन्द होती है । अतः ज्ञानेच्छु को ज्ञान में सहायक मानकर अल्प एवं पवित्र आहार ही ग्रहण करना चाहिए । ऐसा करने पर ही वह ज्ञान हासिल कर सकेगा। बन्धुओ, अभी हमने ज्ञान-प्राप्ति के कारणों पर विचार किया है, जिनकी सहायता से मन्दबुद्धि साधक भी निरन्तर प्रयत्न करते हुए ज्ञान हासिल कर सकता है। किन्तु मुझे यहाँ एक बात और भी आप लोगों के समक्ष रखनी है। और वह यह है कि अगर कोई व्यक्ति या साधक इन सब कारणों का ध्यान रखते हुए भी निविड़ ज्ञानावरणीय कर्मों के कारण पुस्तकीय या शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है, तब भी उसे कदापि निराश नहीं होना चाहिए और घोर दुःख, पश्चात्ताप अथवा आर्तध्यान करके नवीन कर्मबन्धन नहीं करने चाहिए। भगवान के आदेशानुसार 'मैं अज्ञानी हूँ अतः मुझे मानव-जीवन का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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