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________________ Ꮕ गहना कर्मणो गतिः प्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनों ! हमारा कल का विषय 'प्रज्ञा - परिषह' था । उसमें बताया गया था कि अगर साधक में बुद्धि या प्रज्ञा की प्रचुरता है तो वह उसका गर्व न करे तथा प्रज्ञा की मन्दता हो तो उसके लिए मन में खेद न लावे | यह स्वाभाविक है कि लोग साधु से विविध विषयों पर प्रश्न करते हैं, किन्तु अगर वह उनके उत्तर देने की क्षमता न रखता हो और प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा का समाधान न कर आता हो तो भी वह कदापि यह विचार न करे कि - " मैं अज्ञानी हूँ, मन्दबुद्धि हूँ अतः कुछ भी नहीं जानता ।" ऐसी स्थिति में साधक को केवल यह सोचना चाहिए कि मेरे ज्ञानावरणीय कर्मों का अभी क्षय नहीं हुआ है और मुझे उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करना है । **** इसी विषय पर श्री उत्तराध्ययन सूत्र की अगली गाथा में कहा गया है अह पच्छा उइज्जंति, कम्माऽणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं, णच्चा कम्मविवागयं ॥ Jain Education International - अध्ययन २, गाथा ४१ इस गाथा में भगवान ने कर्मों की गहनता बताते हुए कहा है कि बंधे हुए कर्म कभी अल्पकाल में, कभी अधिक काल में या उसके बाद भी उदय में अवश्य आते हैं । इसलिए उनका उदय होने पर शोक या दुःख न करते हुए प्राणी को यह विचार करना चाहिए कि- "ये कर्म मैंने अज्ञानवश किये हैं अत: इन्हें भोगना ही पड़ेगा । निरर्थकं दुःख करने पर तो नये कर्म और भी मेरी आत्मा को जकड़ लेंगे । अतः मुझे समतापूर्वक इन्हें सहन करना है ।" वस्तुतः 'गहना कर्मणो गतिः' यह उक्ति यथार्थ है । शास्त्रों में अनेक स्थानों पर बताया गया है कि कर्म एक-दो जन्म तक तो क्या अनेक जन्मों तक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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