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________________ संवर आत्म स्वरूप है कटे ।' किन्तु उन शब्दों के पीछे वैसी भावना नाममात्र की भी नहीं होती अतः उन गालियों से या बालक के लिए जबानी की गई मरण - कामना से कुछ भी नहीं बिगड़ता क्योंकि वे शब्द केवल जबान पर होते हैं, हृदय में तो बच्चे के लिए स्नेह का सागर लहराता है और शुभ-कामना उसमें ज्वार की भाँति उमड़ती रहती है । इसके विपरीत अनेक व्यक्ति जो माया या कपट से ग्रस्त रहते हैं, हृदय में किसी के प्रति घोर ईर्ष्या या द्वेष की भावना रखते हुए उससे मीठी-मीठी बातें करते हैं । वे मीठी बातें आत्मा को लाभ नहीं पहुँचाती उलटे तिर्यंच गति का I बंध करती हैं । कहा भी है 'मायातैर्यग्योनस्य ।' अर्थात् - माया तिर्यंच योनि को देने वाली है । इस प्रकार मायावी या हृदय में कलुष रखते हुए ऊपर से मीठा बोलने वाले समझते हैं कि हमने बड़ी चतुराई से दूसरों को मूर्ख बना दिया, किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि मूर्ख वह स्वयं बनता है । 'उपदेश प्रासाद' में एक स्थान पर है— 'भुवनं वञ्चयमाना, वंचयन्ति स्वमेव हि ।' ( - जगत को ठगते हुए कपटी पुरुष वास्तव में अपने आपको ही अर्थात्ठगते हैं । २५६ इसलिए बन्धुओ, अगर आप किसी को मधुर वचन कहते हैं या किसी से क्षमा-याचना करते हैं तो ध्यान रखें कि वे शब्द मात्र जबान पर ही न हों, वरन् आपका मानस भी वही कहे, इसका प्रयत्न करें। ऐसा करने वाले ही महापुरुष एवं सच्चे संत कहला सकते हैं । इतिहास ऐसे महामानवों के उदाहरणों से भरा हुआ है । हमें उनसे ही शिक्षा लेनी चाहिए । गौतम बुद्ध को एक बार किसी व्यक्ति ने पूर्ववत् मुस्कुराते रहे । जब उस व्यक्ति का और वह चुप हुआ तो बुद्ध बोले – “भाई ! मैंने अपनी वस्तु तुम ही अपने पास ही रखो ।” जी भरकर गालियाँ दीं, पर वे गालियों का कोष रिक्त हो गया तुम्हारी एक भी गाली नहीं ली, ईसामसीह को उनके कट्टर विरोधियों ने शूली पर चढ़ा दिया, पर उस समय भी उन्होंने भगवान से प्रार्थना की- "हे भगवान ! इन नादान व्यक्तियों को क्षमा करना । " गजसुकुमाल ने मस्तक पर अंगारे रखने वाले सोमिल ब्राह्मण से दुर्वचन नहीं कहा उलटे मौन एवं ध्यानस्थ रहकर उसे क्षमा प्रदान की । Jain Education International For Personal & Private Use Only एक भी www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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