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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
इस प्रकार यक्ष के प्रभाव से प्रतिदिन नर हत्याएँ करने वाले अर्जुनमाली जब मुनि बन गये तो मृतकों के सम्बन्धियों ने सुअवसर जानकर उनकी मुनि अवस्था में छः महीने तक पत्थरों से मारा, डंडों के प्रहार किये और गालियों का तो कहना ही क्या है कि कितनी दी गईं; पर धन्य थे वे मुनि जिन्होंने छः महीनों में जिन असंख्य पाप कर्मों का बन्धन किया था, मुनि बन जाने पर छः महीनों के अल्प काल में ही पूर्ण क्षमाभाव धारण करके निर्मल परिणामों द्वारा उन सबका क्षय कर लिया और मुक्ति हासिल की।
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तो बंधुओ, भाषा समिति के अन्तर्गत प्रसंगवश मैंने आपको यही बताया है कि भाषा की मधुरता एवं वाक् चतुराई के साथ-साथ हृदय में भी पूर्ण निर्मलता, पवित्रता तथा क्षमा की भावना होनी चाहिए तभी भाषा समिति का यथाविधि सच्चाईपूर्वक पालन हो सकता है । अगर ऐसा न हुआ तो व्यक्ति चाहे महाविद्वान, पंडित, ज्ञानी या मुनि ही क्यों न हो कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । उसका ज्ञान अज्ञान एवं मूढ़ता की कोटि में ही रहता है ।
संत तुलसीदास जी ने अपनी सहज एवं सरल भाषा में कहा भी हैकाम, क्रोध, मद, लोभ की, जब लौं मन में खान । तब लौं पंडित मूरखा, तुलसी एक समान ॥
इसलिए महापुरुष और महामुनि आस्रव के स्वरूप और उससे होने वाली भयंकर हानि को समझकर संवर की आराधना करते हैं तथा भाषा समिति का मन की भी पूर्ण विशुद्धता के साथ पालन करते हैं ।
(३) एषणा समिति - एषणा का अर्थ है गवेषणा । पंचमहाव्रतधारी मुनि जब भिक्षा लेने के लिए निकलते हैं तो पूर्ण गवेषणा या खोज करके निर्दोष आहार ही लाते हैं । निर्दोष आहार न मिलने पर भी वे सदोष आहार कभी नहीं लेते, चाहे भूखा रहना पड़े और प्राण जाने की नौबत भी क्यों न आ जाय । आहार ही क्या वे सचित्त जल भी ग्रहण नहीं करते भले ही प्यास के कारण शरीर की कोई भी स्थिति क्यों न हो ।
कई बार हम सुनते हैं कि ग्रीष्म के दिनों में उग्र विहार और ऊपर से निर्दोष जल न मिलने से अमुक मुनि का देहावसान हो गया । ऐसे अनेक प्रसंग पूर्व काल में घट चुके हैं और वर्तमान में भी आते रहते हैं । क्योंकि आहार के अभाव में तो शरीर फिर भी कुछ दिन टिका रहता है, किन्तु जल के अभाव में उसका अधिक टिकना सम्भव नहीं होता ।
पर सच्चे संतों को शरीर की परवाह नहीं होती । वे निर्दोष आहार भी
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