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संवर आत्म स्वरूप है
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भाषा न बोलकर वाचालता अधिक रखेगा वह भाषा पर संयम नहीं रख पायेगा।
कहा जाता है कि एक बार सुकरात के पास एक व्यक्ति आया और बहत देर तक इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् बोला-"मैं आपसे भाषण देने की कला सीखना चाहता हूँ।"
सुकरात जो कि चुपचाप उसकी बातें सुन रहे थे, बोले-“तुम्हें भाषण देने की कला सीखने से पहले एक और कला सीखनी पड़ेगी !”
व्यक्ति ने बड़ी उत्सुकता से पूछा- “वह कौनसी कला है ?" सुकरात ने उत्तर दिया- “मौन रहने की।"
व्यक्ति तुरन्त सुकरात की बात का अर्थ समझ गया और अपनी वाचालता पर बड़ा लज्जित हुआ। ___ इस प्रकार भाषा समिति का पालन करने के लिए बहुत-सी बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है। एक बात और भी है, वह यह है कि मुंह से प्रिय बोलते हुए भी मन में किसी के प्रति दुर्भावना, ईर्ष्या या कपट-भाव न रखा जाय । अगर मन में ऐसा कलुष भाव रहा और जबान से मधुर शब्दों का उच्चारण किया तो उन शब्दों का कोई लाभ नहीं होगा तथा एक समय ऐसा अवश्य आएगा जबकि उसे पश्चात्ताप होगा और स्वयं उसका मन ही धिक्कारेगा। एक उर्दू भाषा के कवि ने कहा है -
शखसम बचश्मे आलिमियाँ खूब मनजरस्त ।
वज खूब से बातनम सरे खिजलत फगन्दाह पेश । अर्थात्-मेरे बाहरी आचरण एवं भाषा से लोग मुझे अच्छा समझते हैं परन्तु अपनी आन्तरिक नीचता से मेरा मस्तक शर्म से नीचे झुका हुआ है ।
तो बन्धुओ, मैं आपको यह बता रहा था कि मुनिराज कर्म-बन्धनों की बारीकियों को भली-भाँति समझ लेने के कारण अपनी भाषा पर पूर्ण नियन्त्रण रखते हैं तथा अपनी बुद्धि और विवेक की तुला पर तोलकर ही शब्दों का संक्षिप्त उच्चारण करते हैं। भाषा समिति के द्वारा ही वचन-गुप्ति भी उनकी सध जाती है। यह संवर की आराधना में बहुत सहायक है, क्योंकि कटु एवं क्रूर शब्दों के द्वारा मन पर हुआ घाव जीवन भर नहीं मिटता यानी सदा याद रहता है तथा वैर-विरोध के कारण कर्मों का आगमन जारी रहता है। .
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