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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
से पहले अपने विवेक की सहायता लेते हैं और तब शब्दों का उच्चारण करते हैं। व्यवहारभाष्य पीठिका में कहा गया है
पुटिव बुद्धीए पासेत्ता, तत्तो वक्कमुदाहरे ।
अचक्खुओ व नेयारं, बुद्धिमन्न सए गिरा ॥ अर्थात्-पहले बुद्धि से परखकर फिर बोलना चाहिए । अन्धा व्यक्ति जिस प्रकार पथ-प्रदर्शन की अपेक्षा रखता है उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है।
हमारे शास्त्रों में भाषा के सम्यक् प्रयोग पर बहुत जोर दिया गया है । कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को सदाप्रिय, हितकारी और सत्यवचनों का उच्चारण करना चाहिए । पर सत्य कभी-कभी कटु भी हो जाता है तथा लोक-व्यवहार के कारण उसमें गड़बड़ हो जाती है अतः भाषा को चार वर्गों में बाँटा गया है-- (१) सत्य भाषा (२) असत्य भाषा (३) मिश्र भाषा और (४) व्यवहार भाषा।
इन चार प्रकार की भाषाओं में से असत्य और मिश्र यानी कुछ सत्य और कुछ असत्य, ये दोनों हेय हैं अतः साधु पुरुष इन दोनों को काम में नहीं लेते। वे या तो सत्य का प्रयोग करते हैं या व्यवहार भाषा का । व्यवहार भाषा में सत्य या असत्य का ध्यान नहीं रखा जाता, फिर भी वह असत्य नहीं कहलाती। यथा-किमी ने मार्ग बताते समय कहा-यह रास्ता बम्बई जाता है । यद्यपि मार्ग कहीं नहीं जाता, वह वहीं रहता है केवल यात्री जाते हैं पर लोक-व्यवहार में यही कहा जाता है । ऐसी भाषा व्यवहार भाषा कहलाती है। . ___ यहाँ एक बात और ध्यान में रखने की है कि कभी-कभी सत्य का प्रयोग करना भी किसी प्राणी के लिए पीड़ा का कारण बन जाता है। अतः उस समय वैसा सत्य न बोलकर मौन रहना ही अधिक अच्छा रहता है। इस दृष्टि से सत्य के भी दो प्रकार बताये गये हैं- (१) वक्तव्य, (२) अवक्तव्य । ___ महापुरुष सत्यवादी होने पर भी वक्तव्य सत्य ही बोलते हैं तथा सत्य होने पर भी पापमय, कर्कश, पीडाजनक, सन्देहयुक्त एवं असभ्य भाषा काम में नहीं लेते । क्योंकि ऐसी भाषा से भी अन्य प्राणियों को दुःख होता है और वह कर्मवन्धन का कारण बन जाता है। जहाँ कर्म-बन्धन होता रहेगा वहाँ संवर नहीं हो सकेगा।
कहने का अभिप्राय यही है कि सत्पुरुष को सत्य बोलना चाहिये, किन्तु वह प्रिय, संक्षिप्त एवं हितकारी भी हो, यह आवश्यक है। जो व्यक्ति परिमित
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