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________________ संवर आत्म स्वरूप है २५५ करते समय नजरें नीची रखकर वे मार्ग को भली-भाँति देखते हैं और जिस मकान में ठहरते हैं, उसमें चलते-फिरते समय 'ओघे' के द्वारा जमीन को सावधानी से साफ कर लेते हैं अर्थात् चींटी आदि जीव हों तो उन्हें हटा देते हैं। मेघमुनि जब अपने पूर्व जन्म में जब हाथी के रूप में थे तो वन में एक बार भयंकर आग लग गई । वन में रहने वाले बड़े और छोटे सभी जीव-जन्तु भागकर एक स्थान पर, जहाँ आग का डर नहीं था, आकर इकट्ठे हो गये । _हाथी भी उन्हीं में से एक था । वह काफी देर तक खड़ा रहा पर एक बार किसी कारणवश ज्योंही उसने अपना पैर ऊपर किया, उस रिक्त स्थान पर एक खरगोश आकर बैठ गया। कुछ समय बाद ही जब उसने अपना पैर पुनः नीचा किया तो उसे महसूस हुआ कि कोई जीव नीचे है। देखा तो वहाँ खरगोश दिखाई दिया। ज्योंही हाथी ने खरगोश को देखा तो पुनः पैर ऊँचा कर लिया। यह सोचकर कि-'अगर मैं पैर नीचे रखूगा तो खरगोश दबकर तुरन्त मर जाएगा।' ___ जीव-जन्तुओं की उस स्थान पर इतनी भीड़ थी कि तिल रखने की भी जगह वहाँ खाली नहीं थी, अतः हाथी अपने पैर को दूसरे स्थान पर भी नहीं रख सका । परिणाम यह हुआ कि जब तक वन में लगी हुई आग शान्त नहीं हुई और वन के प्राणी इधर-उधर नहीं चले गये तब तक हाथी अपने तीन पैरों के बल पर ही खड़ा रहा और एक पैर पूर्ववत् ऊँचा उठाए रखा। तीन दिन निकल गये और विशाल शरीर वाला हाथी बहुत कष्ट पाता रहा । पर जब आग बुझी और उसने पैर नीचा करना चाहा तो वह अकड़ जाने के कारण सीधा नहीं हुआ और हाथी वहीं लुढ़क गया। इतना ही नहीं कुछ समय पश्चात् उसने दम तोड़ दिया। तो बन्धुओ, तिर्यंच गति में जन्म लेने वाला पशु भी जब हृदय में इतनी दया रखता है और किसी जीव की हिंसा न हो जाय इसलिए स्वयं महान् कष्ट पाकर अपनी जान भी दे सकता है, तो फिर सन्त-मुनिराज किस प्रकार असावधानी रखकर हिंसा के भागी बन सकते हैं ? वे तो छहों कायों के प्राणियों की रक्षा करते हैं और उनकी हिंसा से बचते हुए गमनागमन करते हैं । यही ईर्यासमिति का पालन कहलाता है । (२) भाषासमिति- यह दूसरी समिति है और मुनिराज इसका पालन करने के लिए जिह्वा पर पूर्ण नियन्त्रण रखते हैं । कटु-वचनों के प्रयोग से सुनने वाले का मन दुःखी होता है तथा बोलने वाले के कर्म बँधते हैं । इसलिए साधुसाध्वी हितकारी, संक्षिप्त और प्रिय वचनों का ही उच्चारण करते हैं। वे बोलने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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