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आनन्द प्रवचन: सातवाँ भाग
यद्यपि मंजिल तक पहुँचने के लिए तो आस्रव का पूर्णतया अवरोध और संवर का ग्रहण आवश्यक है क्योंकि इस आत्मा पर न जाने कितने कर्मों का बन्धन होगा, जिसे सहज ही तोड़ा नहीं जा सकता, किन्तु कुछ नहीं कर सकने से तो थोड़ा करना भी उत्तम है ।
पं० शोभाचन्द्र जी ‘भारिल्ल' ने संवर का महत्त्व बताते हुए कहा हैआस्रव के अवरोध को संवर कहत सुजान, संवर आत्म स्वरूप है, मुक्ति महल सोपान । सदा काल से आ रहे कर्म अनन्तानन्त, कर संवर आराधना, उन्हें रोकते सन्त । मन को तन को वचन को करके निर्व्यापार, गुप्त सा संवर करें, आत्मनिष्ठ अनगार । कहा गया है कि आस्रव को रोकना संवर कहलाता है और यही आत्मरूप मुक्ति का सोपान है । इस संसार में जीव अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है और इस लम्बे काल में अनन्तानन्त कर्म उससे जुड़ गये हैं । इतने कर्मों का नाश सहज ही सम्भव नहीं है अतः साधु संवर की आराधना करके नवीन कर्मों के आगमन को रोकते हैं तथा मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, इन तीनों को पूर्णतया संयमित एवं शुद्ध बनाकर बारहों प्रकार के तप द्वारा पूर्व कर्मों की निर्जरा करते हैं ।
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आगे आत्मनिष्ठ अनगार किस प्रकार का आचरण रखते हैं, यह बताया गया है-
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सम्यक् यतना से करें, गमनागमन विहार, हित, मित, प्रिय बोलें वचन लें अदोष आहार । निक्षेपण आदान में, यतनावान अतीव, मल-मूत्रादिक त्यागते देख भूमि निर्जीव । समिति रत्न शोभित महा मुनिवर सदा दयाल, संवर के शुभ शस्त्र से, काटें कर्म कराल |
पाँच महाव्रतों के धारी अनगार तीनों गुप्तियों को साधते हुए पाँच समितियों का भी सम्यक्रूप से यतनापूर्वक पालन करते हैं ।
(१) ईर्यासमिति - इसके अनुसार साधु-साध्वी मार्ग में चलते समय पैरों के नीचे कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव भी न आजाय, इसका ध्यान रखते हैं । विहार
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