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हंस का जीवित कारागार
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के सम्पर्क मात्र से ही तो। इस बात से स्पष्ट है कि आप जिस शरीर की ऊपरी सुन्दरता देखकर उसे पाना चाहते हैं, वह शरीर अन्दर से अत्यन्त वीभत्स एवं घिनौने पदार्थों से भरा है। इसलिए आप इसका मोह छोड़कर उत्तम मार्ग अपनाएँ, यही मैं चाहती हूँ।"
राजुल की बातों से रथनेमि को शरीर के अशुचिपन का और इसकी मलिनता का यथार्थ-बोध हो गया और उसने भी विरक्त होकर साधु-धर्म अङ्गीकार कर लिया। कविता में आगे कहा गया हैविविध व्याधियों का मन्दिर तन, रोग शोक का मूल, इहभव परभव में शाश्वत सुख के सदैव प्रतिकूल, ज्ञानी करो राग परिहार, हंस का जीवित कारागार । सागर का सारा जल लेकर धो डालो यह देह, फिर भी बना रहेगा ज्यों का त्यों अशुद्धि का गेह,
न शुचि यह होगा किसी प्रकार, हंस का जीवित ।। वस्तुतः यह शरीर अनेकानेक रोगों का घर है। कहते हैं कि शरीर में जितने रोम-कूप हैं, उतने ही रोग इसे घेरने के लिए सदा तैयार रहते हैं। यह शरीर ही जीव के शाश्वत सुख की प्राप्ति में बाधक भी है अतः ज्ञानपूर्वक विचार करते हुए इससे राग यानी मोह मत रखो।
बन्धुओ, जब तक शरीर रहता है, भले ही वह किसी भी योनि में क्यों न हो, तब तक आत्मा मुक्त नहीं हो सकती। वह शरीर रूपी पिंजरे में बद्ध रहती है । इसलिए मुमुक्षु व्यक्ति यही प्रयत्न करते हैं कि उनकी आत्मा कार्यों से सर्वथा मुक्त हो जाय, ताकि कोई भी शरीर पुनः धारण न करना पड़े।
इसके अलावा इस शरीर का निर्माण ऐसे-ऐसे पदार्थों से हुआ है कि कितना भी मल-मल कर नहलाओ और भले ही सम्पूर्ण सागर के जल से इसे पुनः-पुनः धो डालो, तब भी रंचमात्र भी इसमें परिवर्तन नहीं आएगा, ज्यों का त्यों अशुद्ध ही बना रहेगा । इसलिए भी इससे मोह रखना निरर्थक और कर्भ-बंधन का कारण है। आगे कहा गया है---
गाय-भैंस पशुओं की चमड़ी, आती सौ-सौ काम, हाथी दाँत तथा कस्तूरी बिकती महँगे दाम, नर तन किन्तु निपट निस्सार, हंस का जीवित"। देख अपावन तन, मानवगण, पा विरक्ति का लेश,
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