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________________ २३६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग भक्ति भाव से भजे निरन्तर पावन परम जिनेश, मानव अहंकार बेकार, हंस का जीवित कारागार। हम देखते हैं कि संसार में पशुओं का शरीर तो फिर भी उनके मरने के बाद कुछ न कुछ काम आता है । यथा-अनेक पशुओं को मार कर लोग उनका मांस खाते हैं, ऊपर से उतारी हुई चमड़ी के जूते, बैग, बिस्तर-बन्द के पट्टे और इसी प्रकार अगणित वस्तुएँ बनाई जाती हैं। हाथी-दाँत की चीजें बड़ी सुन्दर और महँगी होती हैं, इसी प्रकार हिरण की नाभि में होने वाली कस्तूरी बड़ी लाभदायक और कीमती मानी जाती है। पशुओं का मल-मूत्र भी अनेक रोगों को ठीक करता है । किन्तु मनुष्य का शरीर उसके मर जाने पर किसी भी काम नहीं आता, ज्यों का त्यों भस्म कर दिया है । इन सब बातों का विचार करके मानव को चाहिए कि वह शरीर की अपवित्रता और असारता को समझकर इससे भगवान की यथाशक्ति भक्ति करे तथा इसके द्वारा अधिकाधिक तप एवं साधना करके लाभ उठाये । अन्यथा एक दिन शरीर नष्ट हो जायेगा और पुनः इसकी प्राप्ति दुर्लभ होगी। भले ही देव, तिर्यंच और नरक गति में उसे अनेक प्रकार के शरीर मिलेंगे, किन्तु उनका मिलना न मिलना समान होगा, क्योंकि आत्मा की भलाई के लिए तो वह कहीं भी कुछ न कर सकेगा । केवल जन्म का, मरण का तथा अन्य प्रकार के दुःखों का भोगना ही हाथ आयेगा । इसीलिए कवि सुन्दरदास जी कहते हैंघरी-घरी घटत छीजत जात छिन-छिन, भीजत ही गलि जात माटी की सी ढेल है। मुक्ति के द्वार आई सावधान क्यूँ न होवे ? . बेर-बेर चढत न तिया को पो तेल है। करि ले सुकृत हरि भज ले अखण्ड नर, याहि में अन्तर पड़े या में ब्रह्म मेल है । मनुष्य जनम यह जीत भावे हार अब, ___सुन्दर कहत या में जूआ को सो खेल है ॥ पद्य अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरणाप्रद है । महापुरुष इसी प्रकार मानव को चेतावनी देते रहते हैं, किन्तु अभागे व्यक्ति ऐसी कल्याणकर चेतावनियों के दिये जाने पर भी आत्म-बोध प्राप्त नहीं करते, यही खेद की बात है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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