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________________ २२० आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग नया-नया पल सकल विश्व में नव्य रूप लाता है । सकल सुखों का पात्र दूसरे पल में बिललाता है ।। है जो जिसकी असल सम्पदा, वह क्या न्यारी होती ? क्या सूरज की जोत कभी भी अलग सूर्य से होती ? अर्थात् —जिस प्रकार जल में उत्पन्न होने पर भी कमल जल से अलग रहता है, इसी प्रकार शरीर में रहते हुए भी जीव शरीर से सर्वथा भिन्न होता है । तो जब शरीर भी आत्मा से अलग होता है, सदा उसका साथ नहीं देता तो फिर संसार के अन्य पदार्थ और सम्बन्धी कैसे उसके हो सकते हैं ? केवल अज्ञान के कारण वह इन सबको मेरा-मेरा कहता है । परिवर्तनशील संसार मनुष्य को विचार करना चाहिए कि इस संसार में प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है । प्रत्येक पल, वह परिवर्तित होती रहती है । अगर ऐसा न होता तो आज जो नई वस्तु हम खरीदते हैं वह कुछ समय बाद पुरानी कैसे हो जाती है ? भले ही वह परिवर्तन इतनी सूक्ष्मता से हो कि हम उसे जान न पाएँ, किन्तु होता अवश्यमेव है और इसे कोई गलत साबित नहीं कर सकता। हम और आप सभी लोग देखते ही हैं कि बालक जन्म लेता है और फिर बड़ा होता जाता है । किस प्रकार वह प्रतिपल बढ़ता है इसे हम देख नहीं पाते, समझ नहीं पाते किन्तु हर क्षण वह बढ़ता अवश्य है । तभी तो युवा, प्रौढ़ और वृद्ध होकर वह जर्जरित देह वाला बनता है । क्या ऐसा किसी एक ही दिन या एक ही समय में होता है कि वह बालक से युवा हो गया हो ? नहीं, वह अपने शरीर में प्रतिपल परिवर्तित होकर बढ़ता चला जाता है। हम तो केवल मोटा. परिवर्तन ही देख पाते हैं, जैसे अपार धन का स्वामी कल रंक हो गया या रंक राजा बन गया। शरीर के लिए भी यही जान पाते हैं कि किसी प्राणी ने जन्म लिया और कोई प्राणी मर गया, यानी शरीर पाया या उसका नाश हो गया। ___ कहने का तात्पर्य यही है कि आत्मा शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील है, किन्तु उसके अलावा शरीर या सम्पदा, सभी परिवर्तित होते रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील दोनों एक नहीं हो सकते । अगर सांसारिक पदार्थ या शरीर जीव के होते तो वे परिवर्तित होकर नष्ट क्यों होते ? असली सम्पत्ति कभी अलग नहीं होती, जिस प्रकार सूरज की ज्योति । सूर्य की ज्योति के लिए कोई लाख प्रयत्न क्यों न करे, वह उससे अलग नहीं की जा सकती। इसी प्रकार अगर शरीर और अन्य वस्तुएँ जीव से किसी भी प्रकार भी अलग नहीं होतीं, तो वे उसकी कहलातीं। पर ऐसा नहीं होता । घाटा लगते ही धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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