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________________ अपना रूप अनोखा २२१ अलग हो जाता है, स्वार्थ न सधते ही सम्बन्धी किनारा कर जाते हैं और मृत्यु का आगमन होते ही देह नष्ट हो जाती है। तब फिर ये सब जीव के कैसे हो सकते हैं ? जीव या आत्मा के अपने तो केवल अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन या उसके अन्य विशुद्ध गुण ही हैं जो कभी उससे अलग नहीं होते । एक छोटा-सा उदाहरण है-- ___कोई संत यत्र-तत्र विचरण करते हुए किसी ऐसे प्रदेश में पहुँच गये, जहाँ के व्यक्ति बड़े क्रूर और निर्दयी थे। पशुओं को मारकर खाना तो उनके लिए साधारण बात थी, वे मनुष्यों को मारने में भी वे नहीं हिचकिचाते थे । संत ने जब यह सब देखा तो उनके हृदय में बड़ी पीड़ा हुई और वे लोगों को अहिंसा धर्म है तथा हिंसा घोर पाप है, इसे नाना प्रकार से अपने उपदेशों के द्वारा समझाने का प्रयत्न करने लगे। फलस्वरूप अनेक व्यक्तियों के दिलों पर उनके उपदेशों का मार्मिक प्रभाव पड़ा और उन्होंने हत्या करना त्याग दिया । पर आप जानते ही हैं कि सभी व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। कुछ सुलभ बोधि होते हैं, जो थोड़े से बोध से ही अपने आपको बदल देते हैं, किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जो लाख प्रयत्न करने पर भी धर्म के मर्म को अपने पास भी नहीं फटकने देते। ऐसे ही व्यक्ति उस प्रदेश में भी थे । जब उन्होंने देखा कि हमारी जाति के अनेक व्यक्ति संत की बातों में आकर अपने जन्म-जात व्यवसाय 'हिंसा' को छोड़ रहे हैं तो उन्हें बड़ा क्रोध आया और मौका पाकर उन्होंने संत को बहुत पीटा तथा उनके वस्त्र, पात्र आदि सब छीन लिये। ___ संत लहू-लुहान होने पर भी पूर्ण शांति एवं समभावपूर्वक ध्यान में बैठे रहे । जब उनके कुछ अनुयायी उधर आये और संत की ऐसी दशा देखी तो चकित और अत्यन्त दुःखी होकर बोले-"भगवन् ! दुष्टों ने आपकी ऐसी दुर्दशा की और सब कुछ छीन लिया, तब भी आपने आवाज लगाकर हमें क्यों नहीं पुकारा ? आपकी आवाज सुनकर हममें से कोई न कोई तो आ ही जाता और उनको अपने कृत्य का मजा चखा देता।" ___संत लोगों की यह बात सुनकर अपनी स्वाभाविक शांत मुद्रा और मुस्कुराहट के साथ बोले-“भाइयो ! क्या कहते हो तुम ? मेरी दुर्दशा करने वाला और मुझसे अपना सब कुछ छीनने की शक्ति रखने वाला इस संसार में है ही कौन ?" संत की यह बात सुनकर वे हितैषी व्यक्ति बहुत चकराये और आश्चर्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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