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________________ आनन्द प्रवचन: सातवाँ भाग इसलिए प्रत्येक मोक्षाभिलाषी को अन्यत्व भावना के रहस्य को समझना चाहिए तथा मोहरहित होकर विचार करना चाहिए कि इस संसार में मेरा कोई भी नहीं है । ये सब नाते जीते जी के हैं और मरने के पश्चात् पुनः नये बन जाएँगे । २१८ पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने अन्यत्व भावना पर लिखी हुई अपनी रचना में सांसारिक सम्बन्धों पर बड़ी विद्वत्तापूर्वक प्रकाश डाला है । कहा हैपहले था मैं कौन, कहाँ से आज यहाँ आया हूँ ? किस-किसका सम्बन्ध अनोखा तजकर क्या लाया हूँ ? जननी - जनक अन्य हैं पाये इस जीवन की बेला । चेला || पुत्र अन्य हैं, पौत्र अन्य हैं, अन्य बन्धु, गुरु, चिरकालीन संगिनी पहले मैंने जिसे बनाया । कुछ ही क्षण में छोड़ उसे अब आज किसे अपनाया ? अन्य धाम धन धरा जीव ने इस जीवन में पाया । आगामी भव में पायेंगे, अन्य किसी की माया ॥ अन्यत्व भावना भाने के लिए कितना सुन्दर उद्बोधन है ? वास्तव में ही मनुष्य को विचार करना चाहिए कि 1 " पूर्व जीवन में मैं कौन था ? कहाँ था ? और किन-किन प्राणियों के कौनकौन से नातों को तोड़कर यहाँ आया हूँ । निश्चय ही मेरे पिछले जन्म में दूसरे माता-पिता व सम्बन्धी होंगे, पर इस जीवन में मुझे ये सब फिर दूसरे मिले हैं यहाँ तक कि पूर्व जन्म में मैंने जिसे चिरकाल -संगिनी पत्नी बनाकर चाहा होगा, उसे छोड़कर इस जीवन में पुन: दूसरी अपना चुका हूँ ।" " इसी प्रकार धन, मकान, जमीन आदि का हाल हो गया है । पिछले जन्म में मेरी सम्पत्ति कहीं और होगी, जिसे अब दूसरे ने पाया होगा और मैं भी किसी अन्य की सम्पत्ति पाकर गर्वित हो रहा हूँ | तारीफ यह है कि यहाँ से भी जब मरूँगा तो मरने के बाद किसी और की माया पर मेरा कब्जा हो जायेगा । कितनी विचित्र बात है ? सदा जीव अकेला ही आता-जाता रहता है । आत्मा के अलावा उसका सब कुछ बदल जाता है । और तो और शरीर भी वह नहीं रहता । कविता में आगे कहा गया है पूर्व भवों में जिस काया को बड़े यत्न से पाला । जिसकी शोभा बढ़ा रही थीं, मणियाँ मुक्ता माला ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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