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________________ अपना रूप अनोखा २१७ बैठे थे । उनकी दृष्टि उस दीन-दरिद्र व्यक्ति पर पड़ गई जो जूते खोले जाने के स्थान पर बैठ गया था और वकील साहब की ओर बड़ी ममतापूर्ण दृष्टि से लगातार देखे जा रहा था। साथ ही उसका चेहरा भी वकील साहब से बहुतकुछ मिलता था । उस समय अन्य कोई कार्य न होने से कौतूहलवश जज ने वकील पुत्र से पूछ लिया- "वकील साहब ! वह वृद्ध कौन है ? उसका चेहरा आप से मिलताजुलता है और आपकी ओर ही वह देखे भी जा रहा है । क्या आपका कोई सम्बन्धी है ?" वकील का चेहरा फक हो गया । जल्दी से कोई उत्तर ही देते नहीं बना पर फिर अपने आपको सँभालकर कहा "जी, वह मेरे गाँव का आदमी है ।" वृद्ध पिता का ध्यान पूरी तरह से अपने पुत्र पर केन्द्रित था और कचहरी में भीड़-भाड़ न होने से उसने अपने लड़के की यह बात सुनली । आखिर तो वह बुजुर्ग और अनुभवी था, अतः उसका स्वाभिमान जाग उठा और बिना पुत्र से डरे वह उठकर बोल पड़ा - "हुजूर ! मैं इसके गाँव का आदमी तो हूँ ही, साथ ही इसकी माता का आदमी भी हूँ ।" वकील साहब पर तो यह बात सुनकर मानो घड़ों पानी पड़ गया और वे स्तब्ध होकर खड़े रह गये । पर पैनी दृष्टि वाले जज ने बात अच्छी तरह समझ ली और बोले— "वकील साहब ! मैं आपके निजी मामलों में बोलने का तो कोई हक नहीं रखता, किन्तु इतना जरूर कह सकता हूँ कि अगर ऐसे दरिद्र बाप ने मुझे अपना पेट काट-काटकर वकील बना दिया होता तो मैं जीवन भर अपने स्नेहशील पिता के चरण को धो-धोकर पीता । उन्हें गाँव का आदमी कहना तो दूर की बात थी, सर आँखों पर बिठाता और तब भी उनके ऋण से अपने उऋण नहीं समझता । " बंधुओ, कहने का अभिप्राय यही है कि संसार के सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं । अगर पिता धनी होता तो वही वकील उनके मार्ग में आँखें बिछाता, पर पुण्य के अभाव से वह गरीब था तो बेटे ने अदालत में उसे बाप कहने से भी इन्कार कर दिया । इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि स्वार्थ सधने पर ही नाते बने रहते हैं अन्यथा वे सब टूट जाते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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