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________________ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग क्रोधभरे वचन सुनाना प्रारम्भ कर देते हैं । बहुत दिन पहले मैंने एक छोटी-सी कहानी पढ़ी थी - २१६ दरिद्र बाप किसी गाँव में एक व्यक्ति रहता था । वह बड़ा दरिद्र था । किन्तु उसने स्वयं भूखा और अधनंगा रहकर बड़ी कठिनाई से अपने पुत्र को पढ़ाकर वकील बनाया | वकील बनाने के बाद पुत्र को समीप के बड़े शहर में वकालत करने भेज दिया । पुत्र शहर में रहने लगा और उसकी वकालत भी चल पड़ी। अब धन का उसे अभाव नहीं रहा अतः वह आनन्द से समय बिताने लगा । बेचारा बाप अपने पुत्र कुशल समाचार जानने के लिए गाँव वालों से लिखवाकर प्रायः पत्र डाला करता था । किन्तु वकील साहब ने अपने वृद्ध एवं दरिद्र बाप के एक भी पत्र का उत्तर नहीं दिया और न ही स्वयं उसकी खोज-खबर लेने एक बार भी गाँव गये । बेचारे पिता की ममता ने ठोकर मारी अतः पुत्र के कोई समाचार न मिलने पर किसी से माँग-मूंगकर उसने थोड़े पैसे इकट्ठे किये तथा स्वयं ही पुत्र से मिलने चल दिया । जब वह शहर पहुँचा और अपने पुत्र के घर गया, ठीक उसी समय पुत्र घर से बाहर कोर्ट में जाने के लिए निकला । पिता ने उसे देखते ही कहा- 'बेटा, कैसे हो तुम ?' 'ठीक हूँ ।' कहता हुआ पुत्र रवाना हो गया तथा एक बार भी दूर गाँव से आये बाप की कुशल क्षेम नहीं पूछी । वृद्ध हक्का-बक्का रह गया पर सोचने लगा——“जरूर ही मेरे बेटे को जल्दी जाना होगा, अन्यथा क्या मुझसे बात नहीं करता ? पर कोई बात नहीं, वह कचहरी में ही तो गया होगा । मैं वहीं लोगों से रास्ता पूछता हुआ चला जाता । शहर में आया हूँ तो कचहरी भी देख लूंगा और मेरा बेटा कैसा वकील बन गया है यह भी जी भर कर देखूंगा । अभी तो मैं भर-आँख उसे एक बार देख भी नहीं पाया । " ऐसा विचार करता हुआ वृद्ध पिता लोगों से रास्ता पूछता - पूछता कचहरी पहुँच गया । पर वहाँ अन्दर जाकर बैठने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी और वह दरवाजे पर ही जहाँ जूते खोले जाते हैं धीरे से बैठ गया तथा तृषित नेत्रों से अपने वकील बन गये बेटे को एकटक देखने लगा । पुत्र ने जब उसे देखा तो मन ही मन बड़ा क्रोधित हुआ पर बोला कुछ नहीं । कचहरी में उस समय भीड़-भाड़ नहीं थी और जज साहब सामने ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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