________________
२१२
आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
यह सुनते ही राजा के हृदय में एकत्व भावना आई। उन्होंने विचार किया- “एकाकी जीवन ही सुखी रह सकता है । जब तक मनुष्य परिवार से तथा अन्य लोगों से घिरा रहता है, तब तक उनके कोलाहलपूर्ण शब्दों के कारण सच्ची शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता । कंकण के शब्दों के समान ही जनरव भी उसे सदा आकुल-व्याकुल बनाये रहता है और ऐसी स्थिति में वह किस प्रकार आत्म-साधना कर सकता है ? क्या ही अच्छा हो कि मैं भी मुनिधर्म ग्रहण करके एकान्त वास करू और पूर्ण शान्तिपूर्वक साधना में लग जाऊँ ।" __ ऐसा ही उन्होंने किया भी । उत्तराध्ययन सूत्र के नवें अध्याय में कहा गया है
से देवलोग सरिसे, अन्तेउरवरगओ वरे भोए । भं जित्तु नमी राया, बुद्धो भोगे परिच्चयई ॥
-श्रीउत्तराध्ययनसूत्र, अ. ६, गाथा ३ अर्थात-अपनी रानियों के साथ देवोपम भोगों को भोगते हुए भी नमिराज स्वयं प्रतिबुद्ध होकर उनका त्याग कर देते हैं ।
तात्पर्य यही है कि नमिराज ने तत्त्व को समझ लिया था। अतः उन्हें विश्वास हो गया कि संसार के कामभोग असार हैं और कटु परिणाम के कारण हैं। आत्मा को तो यहाँ से एकाकी जाना ही है पर अगर संसार के भोगों में उलझे रहे तो पल्ले में पाप-कर्म जरूर बँध जायेंगे। इसलिए सच्ची एकत्वभावना के प्रभाव से उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और अविलम्ब मुनि बनकर उन्होंने आत्मा को कर्मों से मुक्त करने का प्रयास जारी कर दिया ।
भव्य प्राणी इसी प्रकार सुलभ-बोधि होते हैं, जो तनिक सा निमित्त पाते ही जाग उठते हैं । वे तुरन्त समझ जाते हैं कि
सत्य सनातन सारमय, सुख कारण एकत्व ।
यही मुक्ति-पथ अकथ है, यही शुद्ध है तत्त्व ।। कितनी सुन्दर चेतावनी है कि एकत्व भाव ही सत्य, सारपूर्ण, सुख का कारण एवं मुक्ति का मार्ग है। अतः जो आत्माभिलाषी व्यक्ति इसे ग्रहण कर लेते हैं, वे आस्रव-मार्ग का त्याग करके संवर के मार्ग पर बढ़ते हैं तथा कर्मों की निर्जरा करते हुए शिवपुर को प्राप्त करने में समर्थ बन जाते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org