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अपना रूप अनोखा
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
सब संयोगज भाव दे रहे मुझको धोखा।
हाय, न जाना मैंने अपना रूप अनोखा।। हम इन दिनों बारह भावनाओं को लेकर चल रहे हैं। उनमें से अनित्य, अशरण, संसार एवं एकत्व भावना पर विचार किया जा चुका है। आज पाँचवीं अन्यत्व भावना को लेना है जो कि संवरतत्त्व का पैतीसवाँ भेद है ।
__ अन्य का अर्थ है दूसरा या पर । हम संसार के अनेक पदार्थों को तथा व्यक्तियों को, 'मेरे' कहते हैं किन्तु वास्तविक रूप से देखा जाय तो वे सब हमारे कदापि नहीं हैं, हमसे सर्वथा भिन्न हैं और भिन्न ही रहेंगे । हमारा अपना तो शरीर भी नहीं है, फिर जड़ पदार्थ या स्वजन-सम्बन्धी कब हमारे हो सकते हैं ? कभी नहीं । इन सबसे अल्पकाल के लिए संयोग हुआ है और एक दिन पुनः वियोग होगा। श्री शतावधानी जी महाराज ने अपने एक संस्कृत के श्लोक में लिखा हैभार्या स्वसा च पितरौ स्वश्रु पुत्र पौत्राः,
एते न सन्ति तव कोपि न च त्वमपि एषाम् । संयोग एष खगवृक्षवदल्पकालम्,
__ एवं हि सर्वजगतोपि वियोगयोगः ॥ मुनिश्री ने कहा है-इस संसार में पत्नी, पुत्रवधू, माता-पिता एवं पुत्र-पौत्र आदि, जिन्हें तू 'मेरे' कहता है, वे सब अन्य हैं तेरे नहीं । न तो ये तेरे साथ आये हैं और न ही साथ जायेंगे। इस प्रकार न ये तेरे हैं और न ही तू इनका है । इनका और तेरा मिलाप अल्पकाल के लिए हो गया है जो कि कुछ काल पश्चात् ही वियोग में परिणत होने वाला है।
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