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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
रहे हैं — "यह जीव अकेला आया है और अकेला ही जाएगा । इतना अवश्य है कि आते समय उसकी मुट्ठियाँ बँधी होती हैं और जाते समय हाथ खुले रहते हैं । उसके साथ महल-मकान, धन-धान्य, वस्त्र आभूषण, सोना-चाँदी एवं मातापिता या पत्नी-पुत्र, कोई भी नहीं जाता । सम्पूर्ण धन घर पर पड़ा रहता है, दरवाजे की चौखट तक पत्नी साथ चलती है और अन्य स्वजन - सम्बन्धी श्मशान तक साथ देते हैं । बस, उसके आगे की लम्बी यात्रा जीव अकेला ही करता है । सांसारिक सम्बन्ध केवल स्वार्थ के नाते बने रहते हैं, मृत्यु आते ही कोई साथ में मरकर चलने की इच्छा नहीं रखता ।
यही एकत्व भावना है कि मानव भले ही जीवन-भर अपने परिवार के पालन-पोषण और उन्हें अधिकाधिक सुख पहुँचाने के लिए पाप कर्म करके नरक की ओर प्रयाण करे, पर वे ही पारिवारिक जन फिर उसकी परवाह नहीं करते । तब फिर धन-वैभव की तो बात ही क्या है ?
पं० शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' ने भी एकत्व भावना पर अपनी कविता में लिखा है
कर जिनके हित पाप तू, चला नरक के द्वार । देख भोगते स्वर्ग-सुख, वे ही अपरम्पार ॥ यह अभिन्न काया नहीं, साथ जाएगी भ्रात ! तो वैभव परिवार की रही दूर ही बात ||
कहा गया है - "अरे भाई ! जिन नातेदारों को सुखी बनाने के लिए असंख्य पाप करके तू नरक की ओर प्रयाण कर रहा है, वे ही तेरा साथ न देकर स्वर्गों के सुख भोगने के लिए चल दिये हैं। अधिक क्या कहूँ जीवन भर अभिन्न रहने वाला यह शरीर भी तो तेरा साथ नहीं देता, फिर धन-वैभव की तो बात ही क्या है ?
कहने का आशय यही है कि - " जब अन्त में कोई सम्बन्धी या संपत्ति तेरा साथ नहीं दे सकते तो फिर मेरे-मेरे करके क्यों मोह कर्मों का बन्धन करता है तथा धन के लिए रात-दिन खटता रहता है ?"
धन तो बगदाद के राजा कारू के पास भी अपार था । आज भी अधिक धन का उल्लेख करने के लिए - 'कारू का खजाना' कहावत काम में ली जाती है ।
तोका के पास असीम धन था और अपने धन का उसे बड़ा गर्व था । एक बार कारू के पास सोलन नामक कवि आया । कारू ने उससे कहा" कविराज जरा मेरी सम्पत्ति का वर्णन तो अपनी कविता में करो ।"
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