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________________ एगोहं नत्थि मे कोई धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! ____ कल हमने बारह भावनाओं में तीसरी जो ‘संसार-मावना' है, उसके विषय में विवेचन किया था। ये भावनाएँ संवरतत्त्व के अन्तर्गत आती हैं। 'संसारभावना' बारह भावनाओं में से तीसरी है पर संवर के सत्तावन भेदों में से तेतीसवाँ भेद है । आज चौतीसवाँ भेद लेना है, जो कि 'एकत्व भावना' है ।। ___एकत्व भावना किसे कहते हैं ? एकत्व का अर्थ अकेलापन होता है, और जो ‘एकत्व भावना' भाते हैं, वे यही विचार करते हैं कि-'मैं अकेला आया हूँ, अकेला हूँ और अकेला ही जाऊँगा।' वस्तुतः आप और हम सभी देखते-जानते हैं कि जीव अकेला इस पृथ्वी पर आता है और अकेला ही जाता है । न वह साथ में कुछ लाता है और न ही कुछ भी साथ लेकर जाता है । ___ इस विषय में पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने बताया हैएकलो ही आयो और एकलो ही जासी जीव, आयो मुट्ठी बाँध के पसार हाथ जायगो। महल अटारी पट-सारी तात-मात नारी, - धन-धान्य आदि कछु साथ नहीं आयगो॥ स्वारथ सगाई जग अंत समय कौन तेरो ? धरम आराध भाई संकट पलायगो । भावना एकत्व ऐसी भाई नमिराज ऋषि, __ कहत त्रिलोक भावे सो ही मुख पायगो । एकत्व भावना का यही स्वरूप है । महाराज श्री अपनी साधु-भाषा में कह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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