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संसार का सच्चा स्वरूप
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पाने का महान् योग मिला है तो संसार की वास्तविकता को समझ कर धर्माराधन करो, हृदय में करुणा एवं 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना रखो तथा संसार में रहकर भी संसार से निरासक्त रहकर अधिक से अधिक समभाव बनाये रखो ।" यह नहीं कि परिवार में किसी की मृत्यु हो गई तो सदा हाय-हाय करते रहे, किसी ने धन चुरा लिया या छीन लिया तो मारे क्रोध के उससे जीवन भर वैर बाँध रहे और धर्म - साधना के लिए अगर तत्पर हुए तो तनिक-सा किसी भी प्रकार का परिषह आते ही उसे छोड़ बैठे ।
जीवन में धैर्य एवं समाधिभाव कायम रखने की बड़ी आवश्यकता है । अगर यह भाव हृदय में घर कर लेता है तो फिर व्यक्ति किसी भी प्रकार के दुःख और संकट से विचलित नहीं होता । एक उदाहरण है
धर्म ही सच्चा धन है।
प्राचीन समय में एक सौदागर अपना माल लेकर विदेश में व्यापार करने गया । वहाँ कई वर्ष रहा और मूल पूंजी को अनेक गुनी बढ़ाकर पुनः अपने देश के लिए रवाना हुआ। एक बड़े भारी जहाज में उसने सामान लदवाया और कमाया हुआ समस्त द्रव्य लेकर जहाज को समुद्र में चलवा दिया । रास्ता कई दिन का था और दुर्भाग्यवश बीच समुद्र में आने पर बड़े जोरों का तूफान आ गया । नाविकों ने जहाज को सम्हालने की बहुत कोशिश की पर सफल नहीं हुए । परिणामस्वरूप जहाज डूब गया । सौदागर ने बड़ी कठिनाई से छोटी डोंगी के द्वारा अपनी रक्षा की और किसी तरह घर लौटा ।
उसके घर आने पर जब गाँव वालों ने सुना कि सौदागर का जहाज डूब गया और इतने वर्षों तक कमाया हुआ समस्त अर्थ समुद्र के अतल में चला गया तो सभी को बड़ा दुःख हुआ क्योंकि सौदागर बड़ा ईमानदार, स्नेह परायण एवं धर्मात्मा था । अनेक व्यक्ति उसके घर पर समवेदना प्रकट करने के लिए आए और दुःख न करने के लिए विविध शब्दों में समझाने लगे ।
पर सौदागर का चेहरा तनिक भी उदास या दुःखी नहीं था अपितु जैसा सदा शांत एवं खिला हुआ रहता था वैसा ही था । सौदागर ने लोगों से भी कहा - " भाइयो ! मुझे तो जहाज के डूब जाने का रंचमात्र भी दुःख नहीं है । गया सो चला गया, उसके लिए खेद करने की बात ही क्या है ? धन की गति आखिर और क्या हो सकती है ? दुःख मुझे तब होता, जबकि मेरा आत्म-धन चला जाता । पर वह ज्यों का त्यों सुरक्षित है । इस धर्म के असली धन को पानी नहीं डुबा सकता, आग जला नहीं सकती और चोर डाकू छीन नहीं सकते, अतः आपको भी कतई दुःख नहीं मानना चाहिए । यही विचार करना
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