________________
२०२
आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
संसार के वास्तविक स्वरूप को जो समझ लेते हैं, वे ऐसा ही करते भी हैं । यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि मानव-जीवन भी संसार में लाखोंकरोड़ों व्यक्तियों को मिल जाता है, पर इसका स्वरूप और धर्म का मर्म कितने व्यक्ति समझते हैं ? बहुत थोड़े।
पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने अधिकांश मनुष्यों के जीवन का यथार्थ दृश्य प्रस्तुत करते हुए अपनी कविता में कहा है
मानवभव पाकर भी कितने मनुज सुखी होते हैं। विविध व्याधियों के वश होकर अगणित नर रोते हैं । अंगोपांग विकल हो अथवा पागल होकर अपना । जीवन हाय बिताते, कब हो पूरा मन का सपना। दानव-सा दारिद्रय किसी को स्वजन वियोग किसीको। पुत्र-अभाव किसी को अप्रिय का संयोग किसी को। नाना चिन्ताएँ डाइन की भाँति खड़ी रहती हैं।
इस प्रकार दुनिया में दु:ख की सरिताएँ बहती हैं ।। संसार की वास्तविकता का कितना सही चित्र है ? हम कहते हैं मनुष्य जन्म मिल गया, फिर क्या चाहिए ? पर मनुष्य-जन्म मिल जाने पर भी क्या सभी मनुष्य सुखी हो जाते हैं ? नहीं, अनेक मनुष्य इस जीवन को पाकर भी जीवन भर रोगी बने रहते हैं, अनेकों गूंगे या बहरे होते हैं, अनेकों लंगड़े-लूले या अन्य किसी प्रकार से अपंग रहकर दुःखी होते हैं और अनेकों जन्म से ही पागल होकर, हम मनुष्य बने हैं यही नहीं समझ पाते । - इसके अलावा अनेकानेक व्यक्ति जो इन दुःखों से दुःखी नहीं भी होते हैं, वे भी रोते रहते हैं क्योंकि कई घोर दरिद्रता से ग्रस्त रहते हैं, कई स्वजनों के मर जाने पर झूरते हैं, कई पुत्रहीनता का दुःख मानते हैं और कई किसी अन्य प्रकार के संकट में पड़कर छटपटाते रहते हैं ।
इस प्रकार इस संसार में नाना प्रकार की चिन्ताएँ या परेशानियाँ डाइन के समान मनुष्य का खून चूसती रहती हैं । ऐसी स्थिति में, पड़े हुए मनुष्य भला किस प्रकार अपने जीवन का लाभ उठा सकते हैं या मन के मनोरथों को पूरा सकते हैं ?
इसीलिए सन्त महापुरुष कहते हैं कि-"अगर तुम्हें भाग्य से मनुष्य-जन्म, स्वस्थ-शरीर, उच्च-कुल, आर्य-क्षेत्र, सन्त-समागम और वीतरागों के वचन सुन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org