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________________ संसार का सच्चा स्वरूप २०१ जीवन की प्राप्ति असंभव नहीं तो दुर्लभ निश्चय ही हो जाएगी। इस प्रकार मानव-जीवन पाकर कर्मों का क्षय कर लेना इसका लाभ उठाना है और पापकर्म करके पुनः चारों गतियों में भ्रमण करने जाना भारी हानि उठाना है । लोग थोड़ा दान-पुण्य करके उसके बल पर ही स्वर्ग प्राप्ति की कामना करने लगते हैं । प्रथम तो स्वर्ग भी इतनी जल्दी नहीं मिलता और अगर मिल भी जाता है तो उसे मानव-जीवन का सर्वोत्कृष्ट लाभ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि वहाँ क्या होता है, यह मैं अभी आपको बता चुका हूँ। मुख्य बात यही है कि देवता भले ही स्वर्ग का असीम सुख भोग लें, पर वहाँ का आयुष्य समाप्त होने पर उन्हें निश्चय ही अन्य गतियों में जाना पड़ता है। क्योंकि वहाँ पर वे संयम-साधना करके कर्मों से मुक्त होने का तो विचार भी नहीं करते, उलटे एक-दूसरे से ईर्ष्या, द्वेष, कलह एवं मरने से पहले घोर आर्तध्यान करके कर्मबन्धन कर लेते हैं । तारीफ की बात तो यह है कि वहाँ पर धर्माराधन न कर पाने पर वे मानव-जीवन प्राप्त करने को तरसते हैं। कभी गाड़ी नाव पर और कभी नाव गाड़ी पर कैसी अजीब बात है कि जो मनुष्य स्वर्ग पाने का प्रयत्न करके उसे पा भी लेता है वही स्वर्ग में रहकर पुनः मनुष्य जीवन पाने की अभिलाषा रखता है। - शास्त्रों में स्पष्ट कहा है तओ ठाणाई देवे पोहेज्जा माणुसं भवं, आरिए खेत्ते जम्म, सुकुल पच्चायाति । - स्थानांगसूत्र ३-३ अर्थात्-देवता भी तीन बातों की इच्छा करते हैं। प्रथम, मनुष्य जीवन, द्वितीय, आर्यक्षेत्र में जन्म और तृतीय, श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति । . . तो भाई ! मैं यह कहता हूँ कि जब तुम्हें स्वर्ग में जाकर फिर मनुष्य जीवन की इच्छा करनी है तो अभी मिले हुए इसी जीवन को सार्थक क्यों नहीं कर लेते ? यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ-इसी में तो न जाने कितना काल व्यतीत हो जाएगा । इसके अलावा यहाँ से स्वर्ग ही मिलेगा और इच्छा करते ही वहाँ से पुनः यहाँ आ जाओगे, इसका कौन ठिकाना है ? अतः स्वर्ग की इच्छा न रखते हुए संवर के मार्ग पर चलकर कर्मों के आगमन को रोको और इसके साथ ही त्याग, प्रत्याख्यान, तप एवं उत्कृष्ट साधना करके कर्म-क्षय का ही प्रयत्न करो तो आत्मा का भला हो सकेगा। प्रत्येक आत्माभिलाषी को यही करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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