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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
सौजन्य के कारण उन पर अपनी ममतामयी दृष्टि डालते हुए इन्कार किया तथा उसी ममतामयी दृष्टि से चंडकौशिक को भी निहारा । दोनों के प्रति उनका ममत्व-भाव समान था ।
पर क्या आज हम प्रत्येक व्यक्ति के लिए ऐसा विचार करते हैं ? कभी नहीं, अपने पुत्र-पौत्र, पत्नी या परिवार की उदरपूर्ति के लिए तो अन्य व्यक्तियों का पेट काटने से भी नहीं चूकते । इतना ही नहीं, पेट भरना तो फिर भी गुनाह नहीं है पर पेटियाँ भर-भरकर रखने के लिए भी तो अन्य अनेकों के पेट पर लात मारते हैं और उन्हें भूखा-नंगा रहने को बाध्य कर देते हैं । इस प्रकार प्राणी मात्र की बात तो दूर, अपनी मनुष्य जाति के लिए भी हम आत्मवत् भावना नहीं रखते तो 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना कैसे रख सकते हैं।
किन्तु ऐसा न करने का परिणाम क्या होता है ? वही नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-संसार में भटकते हुए महान् दुःख पाने का क्रम जारी रहता है । बिरले महा-मानव ही ऐसे होते हैं, जो 'संसार-भावना' का मर्म हृदय में उतारते हैं तथा जीवमात्र को पूर्णतया अपने समान समझते हैं। ऐसे महापुरुषों का जीवन बिना अधिक प्रयास के ही निर्दोष, निष्कलंक एवं पाप-कर्म रहित बनता जाता है । वे संसार के स्वरूप को भली-भाँति समझ लेते हैं तथा बाह्य धन-वैभव इकट्ठा करने का प्रयत्न छोड़कर आत्म-धन सुरक्षित रखने में जुटे रहते हैं।
उन्हें प्रतिपल यह चिन्ता रहती है कि मानव-जीवन जो कि अनेकानेक पुण्यों के संचय से बड़ी कठिनाईपूर्वक मिला है, इसका एक पल भी निरर्थक न चला जाय । क्योंकि अगर इस जीवन में संसार से मुक्त होने का या कर्मों की निर्जरा करने का प्रयत्न न किया और मृत्यु आ गई तो फिर न जाने कितने काल तक पुनः इस भव-सागर में गोते लगाने पड़ेंगे, तब कहीं पुनः यह जीवन मिल सकेगा और मिलेगा ही यह भी निश्चित नहीं है । केनोपनिषद् में कहा है
. इह चेद वेदीदय सत्यमस्ति,
न चेदिहा वेदीत महती विनष्टि: । अर्थात्-यदि इसी जन्म को सफल बना लिया यानी आत्मा को जान लिया तब तो अच्छा है; अन्यथा बड़ी हानि होगी। - हानि क्या होगी ? यह आप समझ ही गये होंगे । अभी-अभी मैंने बताया भी है कि अगर यह जीवन आत्मा को कर्म-मुक्त करने के काम में न लिया तो फिर चौरासी का चक्कर पुनः-पुनः काटना पड़ेगा तथा फिर से मानव
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