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आनन्द प्रवचन : सातवा भाग
यमराज या जिन्हें हम परमाकामी अथवा परम-अधर्मी देवता कहते हैं, वे जीव को महान् कष्ट देते हैं । करुणा या दया का उनके हृदय में कहीं नामोनिशान भी नहीं होता अतः ठोकना, पीटना, काटना, मारना और अन्य अनेकानेक प्रकार के दुःख वे जीव को देते हैं । एक कवि ने भी इस विषय में लिखा है :
कभी नरक गति में जाता है, बीज पाप का बोकर । घोर व्यथाएँ तब सहता है दीन नारकी होकर ।। छेदन-भेदन, ताड़न-फाड़न की है अकथ कहानी।
बड़े बिलखते सदा नारकी, मिले न दाना पानी।। नरक में दस प्रकार की असह्य क्षेत्र वेदना होती है जिसमें भूख और प्यास भी हैं। नारकीय संसार में प्राणी को अनंत क्षुधा सताती है । वे सोचते हैंतीनों लोकों का सम्पूर्ण अन्न मिल जाय तो खा डालें। पर कहाँ ? एक दाना भी खाने के लिए नहीं मिलता ।
इसी प्रकार अनंत तषा भी नारकीयों को लगती है। उन्हें लगता है-मिल जाय तो सम्पूर्ण सागर का पानी पी लें। पर एक बूंद भी जल नहीं मिल पाता । आप देखते हैं कि यहाँ पर अगर एक इंजेक्शन भी लगवाना पड़े तो सुई देखकर डर लगता है । किन्तु वहाँ पर सेमल वृक्ष के पत्ते ही इतने तीखे होते हैं कि मस्तक पर गिरकर तलवार की धार के समान शरीर को दो भागों में चीर डालते हैं और कुभीपाक नरक का तो पूछना ही क्या है वहाँ पर तो ऐसी हालत और इतनी तकलीफ होती है कि मारे दुःख के प्राणी पाँच सौ योजन तक उछल जाता है।
इस प्रकार नरक के अवर्णनीय दुःखों को पापी जीव भोगता रहता है वहाँ पर जीवन भी तो कितना लम्बा होता है । एक बार पहुँच गये तो कम से कम दस हजार वर्ष और बढ़ते-बढ़ते तैतीस सागरोपम तक भी चला पाता है। इस प्रकार बड़े लम्बे समय तक जब वहाँ घोर दुःख भोगता है तब फिर कभी तिर्यंच योनि प्राप्त करता है। पर वहाँ भी कौन-सा सुख है ? कहा भी है
निकल नरक से कभी जीव तिर्यंच योनि में आता। बध-बन्धन के भार-वहन के कष्ट कोटिशः पाता ॥ . एक श्वास में बार अठारह जन्म-मरण करता है। आपस में भी एक-दूसरा प्राण हरण करता है।
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