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संसार का सच्चा स्वरूप
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! - संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों पर हमारा विवेचन चल रहा है। जिनमें से बत्तीस भेदों पर हम विचार कर चुके हैं और आज तेतीसवाँ भेद आपके सामने रखना है । यह तेतीसवाँ भेद है बारह भावनाओं में से तीसरी 'संसार-भावना'। . ठाणांगसूत्र के चतुर्थ अध्याय में संसार के चार प्रकार बताए गये हैं। इन्हें ही हम चार गतियाँ भी कहते हैं । वे हैं-नरकगति, तिर्यंच गति, मनुष्यगति और देवगति । जीव इन्हीं चारों में पुनः-पुनः जन्म लेता और मरता है । इन गतियों में उसे घोर दुःख उठाने पड़ते हैं जिनके विषय में पूज्य श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने कहा है
नर्क में सिधायो जम तोड़-तोड़ खायो
पड़यो-पड़यो बिलखायो कोई आड़ो नहीं आयो है। कीट में पर्यंत जंत सह्या है , अनन्त दुःख,
नरभव नीच जात पुण्यहीन पायो है ॥ नीची सुरगति पाई और को रिझाई अति,
धर्म में न रीझ्यो चऊगत भयो कायो है । धन्ना शालिभद्र ऐसी भावना भाई है सिरे,
कहत तिलोक भावे सोई जन डाह्यो है ॥ पद्य में सर्वप्रथम नारकीय संसार को लिया गया है क्योंकि वह सबसे नीचे है। चौबीस दंडकों में भी पहला सात नारकी का एक दंडक है।
तो, जो प्राणी घोर पाप करता है वह नरक में जाता है। वहाँ पर
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