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संसार का सच्चा स्वरूप
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पद्य का अर्थ आप समझ ही गये होंगे कि नरक के असह्य दुःख भोग कर कभी जीव तिर्यंच योनि में आता है, तब भी महान् दुःख उठाता है । निगोद में रहकर यानी साधारण वनस्पति काय में एकेन्द्रिय बनता है तथा अनन्त काल तक एक-एक श्वास मात्र के समय में अठारह बार जन्म और मरण के कष्ट सहता है।
तत्पश्चात् जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न बड़ी कठिनाई से मिलता है, इसी प्रकार जीव त्रस पर्याय में एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय प्राप्त करता है, किन्तु क्या उसे कहीं सुख हासिल होता है ? नहीं। सभी पर्यायों में वह दुःख ही पाता है । अगर पंचेन्द्रिय भी बन जाता है तो गधा, बैल एवं घोड़ा बनकर शक्ति से अधिक भार वहन करता है।
इस विषय में आप लोग भली-भाँति जानते हैं और देखते भी हैं कि निर्बल पशुओं पर भी लोग कितना अधिक वजन लादते हैं, ऊपर से बैठकर उनके न चलने पर आरी टोंचते हैं । मूक पशु न शिकायत कर पाता है, न रो पाता है, और न ही विश्राम ले पाता है । भूख-प्यास लगने पर बोल नहीं सकता तथा सर्दी-गर्मी में इच्छानुसार उठ-बैठ नहीं सकता।
असंज्ञी पशु होने पर मन के अभाव में घोर अज्ञानी रहता है और संज्ञी होकर भी अगर निर्बल रहा तो शेर-चीते जैसे क्रूर प्राणियों का आहार बनता है । इस प्रकार तिर्यंच संसार या तिर्यंच योनि में जीव नाना पर्याय धारण करके भी छेदन, भेदन, भूख, प्यास, भार-वहन, सर्दी एवं गर्मी आदि के नाना कष्ट सहन करता रहता है । तिर्यंच गति में भी दुःखों का कोई पार नहीं है। इसीलिए पूज्य श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज कहते हैं कि नरक, निगोद तथा तिर्यंच गति में जीव अनन्त दुःख भोगता है पर उस समय उसे कौन उनसे बचाता है या सहायक बनता है ? कोई भी नहीं। इसीलिए महापुरुष मानव को उद्बोधन देते हैं
पापों का फल एकले भोगा कितनी बार।
कौन सहायक था हुआ करले जरा विचार ।। सोचने की बात है कि मनुष्य अपने परिवार को अधिकाधिक सुख पहुंचाने के लिए जीवन भर नाना प्रकार के पापकर्म करता है तथा उनके मोह में पड़कर अपनी आत्मा का भान भी भूल जाता है। किन्तु जब उन कर्मों का भुगतान वह नरक, निगोद या पशु योनि में रहकर घोर दुःखों के रूप में करता है, तब परिवार का कौनसा सदस्य उनमें हिस्सा बँटाता है ? कोई भी तो उस कष्टकर समय में आड़े नहीं आता ।
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