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________________ सब टुकुर-टुकुर हेरेंगे . १८७ अनाथी मुनि ने भी सच्चे हृदय से धर्म की शरण ली थी, क्योंकि वे भली भाँति जान गये थे कि इस भव-वन में धर्म के अलावा अन्य कोई भी शरण देने वाला नहीं है। ___ यद्यपि माता-पिता आदि ने उनके स्वस्थ होने पर कहा–'हमने अमुक देव की मान्यता की थी और हमने अमुक की।' पर अनाथी मुनि ही जानते थे कि सच्ची मान्यता किसकी पूरी हुई ! उन्होंने स्पष्ट कह दिया-"मैंने जिनधर्म की मान्यता की थी और उसी की शरण लेकर साधु-धर्म स्वीकार करूंगा।" ऐसा ही किया भी । बिना विलम्ब किये उन्होंने अनगार धर्म ग्रहण कर लिया और साधना में लग गये। पर जब महाराजा श्रेणिक ने उन्हें देखा तो उनकी युवावस्था और अपार सौन्दर्य-युक्त तेजस्वी शरीर को देखकर वे कुछ चकित और दुःखी होकर पूछने लगे__"महाराज ! अपार सौन्दर्य के धनी होने पर भी ऐसी तरुण अवस्था में आपने मुनिधर्म क्यों ग्रहण कर लिया ? आपको क्या दुःख था ?" सहज भाव से अनाथी मुनि ने उत्तर दिया"राजन् ! मेरा कोई नाथ नहीं था, इसीलिए मैं मुनि बन गया हूँ।" राजा श्रेणिक यह सुनकर तुरन्त बोले- "अगर ऐसी बात है तो मैं आपका नाथ बन जाता हूँ। आप सहर्ष और आनन्दपूर्वक संसार के सुखों का उपभोग कीजिये।" बात यह थी कि श्रेणिक अनाथी मुनि की बात का रहस्य नहीं समझे थे । साधारण व्यक्तियों की तरह उन्होंने विचार किया कि 'धन-जन का अभाव होने के कारण ही ये इस अवस्था में साधु बन गये हैं।' लोग ऐसा ही सोचते भी हैं कि साधु उसी को बन जाना चाहिए जो अपनी उदरपूर्ति नहीं कर सकता हो तथा परिवार का भरण-पोषण न कर पाता हो। इसके अलावा धर्म-कार्यों को वे जवानी में न करके वृद्धावस्था में करने के लिए रख छोड़ते हैं। सोचते हैं-'जब हाथ-पैर नहीं चलेंगे और व्यापार-व्यवसाय नहीं किया जा सकेगा, उस समय बैठे-बैठे धर्म-ध्यान कर लेंगे।' यह उनकी कितनी बड़ी भूल होती है ? क्या ऐसे व्यक्ति निश्चय पूर्वक कह सकते हैं कि उनकी वृद्धावस्था आएगी ही ? जीवन के पिछले समय में धर्मध्यान करना रख छोड़ा तथा प्रारम्भ के समय में धन कमाते और भोग-विलास करते रहे, पर पिछला समय आने से पहले ही काल झपट्टा मारकर ले चला तो फिर क्या होगा ? यही कि जितने पाप-कर्म किये हैं वे ही केवल पीछा करते चलेंगे। तात्पर्य यह कि अगला समय तो पापों के उपार्जन में बिगड़ा ही और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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