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________________ सब टुकुर-टुकुर हेरेंगे. धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! __ कल हमने संवरतत्त्व के अन्तर्गत आने वाली बारह भावनाओं में से प्रथम 'अनित्य-भावना' के विषय में विवेचन किया था। साथ ही यह भी बताया गया था कि भरत चक्रवर्ती छः खण्ड के अधिपति थे, किन्तु अँगुली से एक अंगूठी के निकल कर गिर जाने का ज्यों ही निमित्त मिला, उन्होंने एक-एक करके समस्त आभूषण शरीर से अलग कर दिये । उस दौरान उन्हें यही विचार आया "अरे, इस शरीर का सौन्दर्य जड़ आभूषणों से है, स्वयं इसमें क्या सुन्दरता है ? कुछ भी नहीं। केवल मांस, मज्जा, रक्त और हड्डियाँ ही तो इसमें हैं, जो मेरी आत्मा के निकलते ही दुर्गन्धमय एवं फूंक देने योग्य ही रह जाएँगी। इससे स्पष्ट है कि जब यह शरीर ही मेरा नहीं है तो ये आभूषण, धन, वैभव, राजपाट और मुझे अपना कहने वाले स्वजन-सम्बन्धी मेरे कैसे हुए ? निश्चय ही इस आत्मा के अलावा संसार में विद्यमान सभी कुछ मुझसे 'पर' है तथा इससे वियोग होना अवश्यंभावी है । यह सभी अनित्य है और अनित्य से मोह रखने पर मेरा क्या लाभ होगा ? लाभ तो केवल आत्मा को सुखी बनाने में है और वह सांसारिक प्रपंचों के बढ़ाने से या इयमें गृद्ध रहने से सुखी नहीं बन सकती। आत्मा सुखी तभी बन सकेगी, जबकि इस अनित्य संसार से मुंह मोड़कर अपने अन्दर झाँका जायेगा और अन्दर रही हई आत्मा की अनन्तज्ञान, दर्शन एवं चारित्रमय सुन्दरता को कर्म-मैल हटाकर ज्योतिर्मान बनाया जायेगा। इसलिए मुझे बाह्य और अनित्य जगत से कुछ भी लेना-देना नहीं है केवल अपनी आत्मा को परखना है।" इस प्रकार भरत महाराज ने अनित्य-भावना को इस उत्कृष्टता से भाया कि उन्हें उसी समय केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई, जिसके लिए साधक वर्षों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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