________________
१८२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग भक्त दीन दरवेश ने भी मनुष्य को कड़ी चेतावनी देते हुए कहा है
बंदा करले बंदगी, पाया नर-तन सार । जो अब गाफिल रह गया, आयु बहे झखमार ॥ आयु बहे झखमार कृत्य नहिं नेक बनायो। पाजी, बेईमान कौन विधि जग में आयो ।
कहत दीन दरवेश फस्यो माया के फंदा, यह कुण्डलिया पद्य सुनकर आप सोचेंगे कि सन्त ने मनुष्य को पाजी और बेईमान कहकर अपमानित किया है ।
पर बन्धुओ, सन्तों को किसी से लेना-देना नहीं है। वे तो पर-दया यानी समस्त अन्य प्राणियों में रही हुई आत्माओं की दशा से दयार्द्र होकर किसी भी प्रकार मानव को सावधान करने का प्रयत्न करते हैं ताकि वह माया और प्रपंच में फंसा रहकर कर्मों का भार बढ़ाते हुए अपनी आत्मा को कष्टों की आग में न झोंके । पापों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले घोर दुःखों के मुकाबले में ये हित-भावना से दी हुई गालियाँ सिंधु में बिन्दु के समान भी कष्टकर नहीं हैं । अतः उन्हें गालियाँ न समझकर उपदेश समझना चाहिए।
भरत चक्रवर्ती थे पर अंगुली से एक अंगूठी के गिरते ही उन्होंने एक-एक करके शरीर से समस्त आभूषण उतारे और संसार की अनित्यता को इतनी गहराई और आत्मभावना से सोचा कि उसी समय, महल में बैठे-बैठे उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। आशा है आप भी अपनी अनित्य-भावना को बढ़ाकर जीवन का सच्चा लाभ उठाएँगे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org