________________
१८४
आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
साधना करते हैं। भव्य आत्माएँ इसी प्रकार तनिक सा निमित्त मिलते ही जागृत हो जाती हैं, जबकि साधारण व्यक्ति वर्षों उपदेश सुनते हुए भी, व्यापार में लाखों का नुकसान होते हुए भी और अपने हाथों से सम्बन्धियों के मृत शरीरों को फूंकते हुए भी यह नहीं समझ पाते कि आखिर जिस शरीर को सुखी बनाने के लिए हम रात-दिन प्रयत्न करते हैं, शक्ति का ह्रास करते हैं और दुर्लभ जीवन के अमूल्य समय को निरर्थक गँवाते हैं उसमें है क्या ? कवि सुन्दरदास जी कहते हैं :जा सरीर मांहिं तू अनेक सुख मान रह्यो,
ताहि तू विचार या में कौन बात भली है ? मेद मज्जा मांस रग-रग में रकत भर्यो,
पेट हू पिटारी सी में ठौर-ठौर मली है । हाड़न तूं भर्यो मुख हाड़न के नैन नाक,
हाथ-पाँव सोऊ सब हाड़न की नली है । सुन्दर कहत याहि देखि जनि भूलै कोई,
भीतर भंगार भरी ऊपर तो कली है ।। इस प्रकार कवि ने शरीर की वास्तविकता और अनित्यता बताते हुए मनुष्य को उद्बोधन दिया है-"भाई ! जिस शरीर को प्राप्त करके तू बड़ा प्रसन्न हो रहा है भला बता तो सही कि इसमें कौन-सी चीज उत्तम है ? केवल मांस, मज्जा, रक्त और हड्डियों का ढाँचा ही तो है इसमें । इतना अवश्य है कि इसके ऊपर चमड़ी की खोली चढ़ी है जो इन नेत्रों को सुन्दर दिखाई देती है, पर यह तो वही बात हुई, जैसे कचरे के ढेर पर कुछ मोगरे की कलियाँ डाल दी गईं हों । क्या इससे अन्दर की मलिनता मिट जायेगी ? नहीं, वह वैसी की वैसी रहेगी। दूसरे, सबसे बड़ी बात यह है कि शरीर में भीतर या बाहर जो कुछ भी है, वह भी तो नित्य रहने वाला नहीं है, अनित्य है। जिस दिन आत्मा रूपी हंस इस पिंजरे को छोड़ जायेगा, यह सब ले जाकर फूंक दिया जाएगा। इसलिए इसे सुन्दर मानकर अपना समझने की भूल मत करो, अपितु केवल इसमें अपनी जो आत्मा है, इसे सुन्दर बनाने का एवं कर्मों की मलिनता से मुक्त करने का प्रयत्न करो।"
कविता का कथन वस्तुतः यथार्थ है और इसे ध्यान में रखते हुए प्रत्येक आत्माभिलाषी संसार की अनित्यता को समझते हुए आत्मा की नित्यता पर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org