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________________ सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं... १७५ समाप्त हो जायँगे, उसी क्षण अन्यत्र अपना निवास कर लेगी। इसे जाने के अनेक रास्ते हैं, जिनके द्वारा यह पलायन कर जाती है । श्लोक में कहा गया है कि लक्ष्मी या तो पुण्यों के समाप्त होने पर स्वयं चली जाएगी और नहीं तो तुम्हें ही इसे यहाँ छोड़कर मृत्यु-पथ पर अग्रसर हो जाना होगा । वास्तव में ही मृत्यु का आगमन होने पर सम्पूर्ण धन-वैभव एवं शरीर को पुष्ट वनाने वाली दवाइयाँ यों ही पड़ी रह जाती है और आत्मा रूपी हंस अकेला चल देता है। कवि सुन्दरदास जी ने भी यही कहा है :बने रहे बटना बनाए रहे भूषण भी, अतर फुलेलन की शीशियाँ धरी रहीं। तानी रही चाँदनी सोहानी रही फूल-सेज, मखमल के तकियों की पंकती करी रही । बने रहे नुसखे त्रिफले माजूम कन्द, खुरस खमीरा याकूतियाँ परी रहीं । उड़ गयो बीच में ते हंस जो सुन्दर हुतो, बस यह शरीर अरु खोपरी परी रही। कवि ने कितना मर्मस्पर्शी एवं हृदय को मथने वाला जीवन का चित्र खींचा है कि व्यक्ति ने सांसारिक सुखों का उपभोग करने के लिए तथा अपने अहं की तृप्ति के लिए नाना प्रकार के आभूषण और सोने के बटनादि बनवाये, इत्र-फुलेल की भरमार की तथा सुख से सोने के लिए सुन्दर शय्या तैयार करवाई । किन्तु काल के आते ही शरीर में स्थित, जीव-रूपी हंस को उड़ जाना पड़ा और समस्त पौष्टिक पदार्थ एवं नुसखे उसे रोक नहीं सके, यहीं पड़े रह गये और पड़ी रही वह खोपड़ी, जिसमें उसके नाना मनोरथ, इच्छाएँ, कामनाएँ एवं अभिलाषाएं कुछ समय पहले मौजूद थीं। __ इसीलिए महापुरुष एवं हमारे धर्मग्रन्थ बार-बार मनुष्य को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि- "आत्मा के अलावा सम्पूर्ण दृश्यमान पदार्थ और जीवन क्षणिक तथा अनित्य हैं। अतः समय रहते ही इस धन से परोपकार करके पुण्योपार्जन कर लो और शरीर से उत्तम साधना करते हुए संवर के मार्ग पर बढ़ते रहो ताकि पूर्व कर्मों का क्षय हो सके।" किन्तु ऐसा वही कर सकता है, जिसके हृदय में 'अनित्य भावना' प्रतिपल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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