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आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
"अगर इन बातों को तुम याद रखोगे कि संसार में मुझे जो भी संयोग मिले हैं उनका वियोग होना है, शरीर के रोगी होने की संभावना है, वृद्धावस्था आने वाली है तथा मरण भी अवश्यभावी है तो फिर तुम अपने वैभव से निरासक्त एवं शरीर से ममत्वरहित रहकर सदा शुभ कार्य करोगे और अन्याय, अत्याचार से बचकर पापों का उपार्जन नहीं करोगे।"
वस्तुतः यही चार बातें प्रत्येक मानव को याद रखनी चाहिए क्योंकि अनित्य भावना ही इनमें निहित है। प्रत्येक मनुष्य को संसार के समस्त पदार्थों को छोड़ना है तथा रोग, वृद्धावस्था या मृत्यु के बहाने यह शरीर त्याग देना है। __ शरीर के समान ही धन भी अनित्य है। शरीर तो फिर भी मृत्यु के समय ही जीव से अलग होता है, यानी जीवन रहते उसे कोई दूसरा नहीं ले पाता, किन्तु धन, मकान, जमीन या वैभव की अन्य वस्तुएँ तो एक जीवन में ही उसके पास से चली जाती हैं । आज एक व्यक्ति लखपति है तो कल वही मुट्ठी भर चने के लिए तरस सकता है । हिन्दुस्तान का जब विभाजन हुआ था, उस समय हम देखते थे कि हजारों व्यक्ति जो अपने शहर में लखपति-करोड़पति थे वे अन्यत्र जाकर भूखे पेट कई-कई दिन निकाला करते थे । ___इस विषय में शतावधानी पूज्य श्री रत्नचन्द्र जी महाराज ने एक श्लोक लिखा हैवातोलित दीपकांकुर समां, लक्ष्मी जगन्मोहिनीम् ।
दृष्ट्वा किम् हृदि मोदसे हतमते मत्वा ममश्रीरिति । पुण्यानां विगमेऽथवा मतिपथे प्राप्तेऽप्रियं तत्क्षणात् ।
___अस्मिन्नेव भवे भवायुभयना तस्या वियोगः परम् ॥ . श्लोक में धन की अतीव कामना रखने वाले मनुष्य को उद्बोधन देते हुए कहा है-'अरे मतिहीन पुरुष ! लक्ष्मी की प्राप्ति करके तू इतना गर्व मत कर
और न ही मन में मोद का अनुभव कर । क्योंकि यह अत्यन्त चंचल है तथा किसी भी दिन तेरा साथ छोड़कर पलायन कर सकती है। इस जगतमोहिनी चंचला को पाकर तू किसलिए इतराता है, जबकि यह जिस प्रकार तेरे पास आई है उसी प्रकार किसी भी समय किसी और के पास जा सकती है।
वायु के झौंके से दीपक की लौ जैसे कभी इधर और कभी उधर हो जाती है, ठीक वैसे ही लक्ष्मी भी कभी एक के और कभी दूसरे के पास पहुँच जाती है जब तक पल्ले में पुण्य है, तब तक यह तुम्हारे पास रहेगी और जब पुण्य
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